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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २४९ परममाध्यस्थ्यभावाद्यारूढस्थितस्य परममुमुक्षोः स्वरूपमत्रोक्तम्। य: सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणि: विकारकारणनिखिलमोहरागद्वेषाभावाद भेदकल्पनापोढपरमसमरसीभावसनाथत्वात्रसस्थावरजीवनिकायेषु समः, तस्य च परमजिनयोगीश्वरस्य सामायिकाभिधानव्रतं सनातनमिति वीतरागसर्वज्ञमार्गे सिद्धमिति। (मालिनी) त्रसहतिपरिमुक्तं स्थावराणां वधैर्वा परमजिनमुनीनां चित्तमुच्चैरजस्रम्। अपि चरमगतं यन्निर्मलं कर्ममुक्त्यै तदहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि।। २०४ ।। (अनुष्टुभ् ) केचिदद्वैतमार्गस्थाः केचिदद्वैतपथे स्थिताः। द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमार्गे वर्तामहे वयम्।। २०५ ।। [ सर्वभूतेषु ] सर्व जीवोंके प्रति [समः] समभाववाला है, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [ स्थायि ] स्थायी है [इति केवलिशासने ] ऐसा केवलीके शासनमें कहा है। टीका:-यहाँ, परम माध्यस्थभाव आदिमें आरूढ़ होकर स्थित परम-मुमुक्षुका स्वरूप कहा है। जो सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका शिखामणि (अर्थात् परम सहज-वैराग्यवंत मुनि) विकारके कारणभूत समस्त मोहरागद्वेषके अभावके कारण भेदकल्पनाविमुक्त परम समरसीभाव सहित होनेसे त्रस-स्थावर ( समस्त) जीवनिकायों के प्रति समभाववाला है, उस परम जिनयोगीश्वरको सामायिक नामका व्रत सनातन (स्थायी) है ऐसा वीतराग सर्वज्ञके मार्गमें सिद्ध है। [अब इस १२६ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज आठ श्लोक कहते हैं:] [ श्लोकार्थ:-] परम जिनमुनिओंका जो चित्त (चैतन्यपरिणमन) निरंतर त्रस जीवोंके घातसे तथा स्थावर जीवोंके वधसे अत्यंत विमुक्त है, और जो (चित्त) अंतिम अवस्थाको प्राप्त तथा निर्मल है, उसे मैं कर्मसे मुक्त होनेके हेतु नमन करता हूँ, स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकारसे भाता हूँ। २०४।। [श्लोकार्थ:-] कोई जीव अद्वैतमार्गमें स्थित हैं और कोई जीव द्वैतमार्गमें स्थित है; द्वैत और अद्वैतसे विमुक्त मार्गमें ( अर्थात् जिसमें द्वैत या अद्वैतके विकल्प नहीं हैं ऐसे Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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