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परम-समाधि अधिकार
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व्यासंगविनिर्मुक्त:,प्रशस्ता-जप्रशस्तसमस्तकायवाङ्मनसां व्यापाराभावात् त्रिगुप्तः, स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रा -भिधानपंचेन्द्रियाणां मुखैस्तत्तद्योग्यविषयग्रहणाभावात् पिहितेन्द्रियः, तस्य खलु महामुमुक्षोः परमवीतरागसंयमिन: सामायिकं व्रतं शश्वत् स्थायि भवतीति।
( मंदाक्रांता) इत्थं मुक्त्वा भवभयकरं सर्वसावद्यराशिं नीत्वा नाशं विकृतिमनिशं कायवाङ्मानसानाम्। अन्तःशुद्धया परमकलया साकमात्मानमेकं बुद्ध्वा जन्तुः स्थिरशममयं शुद्धशीलं प्रयाति।। २०३ ।। जो समो सव्वभूदेसु थावरेसु तसेसु वा। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे।।१२६ ।।
यः समः सर्वभूतेषु स्थावरेषु त्रसेषु वा। तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने।। १२६ ।।
"व्यासंगसे विमुक्त है, प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त काय-वचन-मनके व्यापारके अभावके कारण त्रिगुप्त (तीन गुप्तिवाला) है और स्पर्शन, रसन, घ्राण , चक्षु तथा श्रोत्र नामक पाँच इंद्रियों द्वारा उस-उस इंद्रियके योग्य विषयके ग्रहणका अभाव होनेसे बंद की हुई इंद्रियोंवाला है, उस महामुमुक्षु परमवीतराग-संयमीको वास्तवमें सामायिकव्रत शाश्वत-स्थायी है।
[अब इस १२५ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[श्लोकार्थ:-] इसप्रकार भवभयके करनेवाले समस्त सावद्यसमूहको छोड़कर, काय-वचन-मनकी विकृतिको निरंतर नाश प्राप्त कराके, अंतरंग शुद्धिसे परम कला सहित ( परम ज्ञानकला सहित) एक आत्माको जानकर जीव स्थिरशममय शुद्ध शीलको प्राप्त करता है (अर्थात् शाश्वत समतामय शुद्ध चारित्रको प्राप्त करता है)। २०३।
गाथा १२६ अन्वयार्थ:-[ यः ] जो [ स्थावरेषु ] स्थावर [ वा ] अथवा [ त्रसेषु ] त्रस
* व्यासंग = गाढ संग; संग; आसक्ति।
स्थावर तथा त्रस सर्व जीवसमूह प्रति समता लहे । स्थायि समायिक है उसे,यों केवलीशासन कहे ।।१२६ ।।
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