________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
२४५
निश्चयशुक्लध्यानम्। एभिःसामग्रीविशेषैः सार्धमखंडाद्वैतपरमचिन्मयमात्मानं यः परमसंयमी नित्यं ध्यायति, तस्य खलु परमसमाधिर्भवतीति।
(अनुष्टुभ् ) निर्विकल्पे समाधौ यो नित्यं तिष्ठति चिन्मये। द्वैताद्वैतविनिर्मुक्तमात्मानं तं नमाम्यहम्।। २०१ ।।
किं काहदि वणवासो कायकिलेसो विचित्तउववासो। अज्झयणमोणपहुदी समदारहियस्स समणस्स।।१२४ ।।
किं करिष्यति वनवासः कायक्लेशो विचित्रोपवासः।
अध्ययनमौनप्रभृतयः समतारहितस्य श्रमणस्य।।१२४ ।। अत्र समतामन्तरेण द्रव्यलिङ्गधारिणः श्रमणाभासिनः किमपि परलोककारणं नास्तीत्युक्तम्।
वह निश्चयशुक्लध्यान है। इन सामग्रीविशेषों सहित (-इस उपर्युक्त विषेश आंतरिक साधनसामग्री सहित) अखंड अद्वैत परम चैतन्यमय आत्मा जो परम संयमी नित्य ध्याता है, उसे वास्तवमें परम समाधि है।
[अब इस १२३ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं:]
[ श्लोकार्थ:-] जो सदा चैतन्यमय निर्विकल्प समाधिमें रहता है, उस द्वैताद्वैतविमुक्त (द्वैत-अद्वैतके विकल्पोंसे मुक्त ) आत्माको मैं नमन करता हूँ। २०१।
गाथा १२४ अन्वयार्थ:-[ वनवासः] वनवास , [ कायक्लेशः विचित्रोपवासः] कायक्लेशरूप अनेक प्रकारके उपवास, [ अध्ययनमौनप्रभृतयः] अध्ययन, मौन आदि (कार्य) [ समतारहितस्य श्रमणस्य ] समतारहित श्रमणको [ किं करिष्यति ] क्या करते हैं ( -क्या लाभ करते हैं) ?
टीका:-यहाँ (इस गाथामें ), समताके बिना द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभासको किंचित् परलोकका कारण नहीं है ( अर्थात् किंचित् मोक्षका साधन नहीं है) ऐसा कहा है।
वनवास, कायाक्लेशरूप अनेक विध उपवास से । वा अध्ययन मौनादिसे क्या! साम्य विरहित साधुके ।। १२४ ।।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com