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परम-समाधि अधिकार
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संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण। जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स।। १२३ ।।
संयमनियमतपसा तु धर्मध्यानेन शुक्लध्यानेन। यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्य।। १२३ ।।
इह हि समाधिलक्षणमुक्तम्।
संयम: सकलेन्द्रियव्यापारपरित्यागः। नियमेन स्वात्माराधनातत्परता। आत्मानमात्मन्यात्मना संधत्त इत्यध्यात्म तपनम्। सकलबाह्यक्रियाकांडाडम्बरपरित्यागलक्षणान्तःक्रियाधिकरणमात्मानं निरवधित्रिकालनिरुपाधिस्वरूपं यो जानाति, तत्परिणतिविशेष:स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानम्। ध्यानध्येयध्यातृतत्फलादिविविधविकल्पनिर्मुक्तान्तर्मुखाकार-निखिलकरणग्रामागोचरनिरंजननिजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपं
गाथा १२३ अन्वयार्थ:-[ संयमनियमतपसा तु] संयम, नियम और तपसे तथा [धर्म-ध्यानेन शुक्लध्यानेन ] धर्मध्यान और शुक्लध्यानसे [ यः] जो [ आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [ तस्य ] उसे [ परमसमाधिः ] परम समाधि [ भवेत् ] है।
टीका:-यहाँ ( इस गाथामें ) समाधिका लक्षण (अर्थात् स्वरूप ) कहा है।
समस्त इंद्रियों के व्यापारका परित्याग सो संयम है। निज आत्माकी आराधनामें तत्परता सो नियम है। जो आत्माको आत्मामें आत्मासे धारण कर रखता है-टिका रखता है-जोड़ रखता है वह अध्यात्म है और वह अध्यात्म सो तप है। समस्त बाह्यक्रियाकांडके आडंबरका परित्याग जिसका लक्षण है ऐसी अंतःक्रियाके अधिकरणभूत आत्माको -कि जिसका स्वरूप अवधि रहित तीनों काल (अनादि काकसे अनंत काल तक) निरुपाधिक है उसे-जो जीव जानता है, उस जीवकी परिणतिविशेष वह स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान है। ध्यान-ध्येय-ध्याता, ध्यानका फल आदिके विविध विकल्पोंसे विमुक्त (अर्थात् ऐसे विकल्पोंसे रहित), अंतर्मुखाकार (अर्थात् अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसा), समस्त इंद्रियसमूहसे अगोचर निरंजन-निज-परमतत्त्वमें अविचल स्थितिरूप ( -ऐसा जो ध्यान)
* अधिकरण = आधार। (अंतरंग क्रियाका आधार आत्मा है।)
संयम, नियम तपसे तथा रे धर्म-शुक्ल सुध्यान से । ध्यावे निजात्मा जो परम होती समाधि है उसे ।। १२३ ।।
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