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नियमसार
२४३
परमार्थतः प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तवाग्विषयव्यापारो न कर्तव्यः। अत एव वचनरचनां परित्यज्य सकलकर्मकलंकपंकविनिर्मुक्तप्रध्वस्तभावकर्मात्मकपरमवीतरागभावेन त्रिकालनिरावरणनित्यशुद्धकारणपरमात्मानं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानेन टंकोत्कीर्णज्ञायकैक-स्वरूपनिरतपरमशुक्लध्यानेन च यः परमवीतरागतपश्चरणनिरतः निरुपरागसंयतः ध्यायति , तस्य खलु द्रव्यभावकर्मवरूथिनीलुंटाकस्य परमसमाधिर्भवतीति।
( वंशस्थ) समाधिना केनचिदुत्तमात्मनां हृदि स्फुरन्तीं समतानुयायिनीम्। यावन्न विद्मः सहजात्मसंपदं न मादृशां या विषया विदामहि।। २०० ।।
परमार्थसे प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त वचनसंबंधी व्यापार करनेयोग्य नहीं है। ऐसा होनेसे ही, वचनरचना परित्यागकर जो समस्त कर्मकलंकरूप कीचड़से विमुक्त है और जिसमेंसे भावकर्म नष्ट हुए हैं ऐसे भावसे-परम वीतराग भावसे-त्रिकाल-निरावरण नित्य-शुद्ध कारणपरमात्माको स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यानसे तथा टंकोत्कीर्ण ज्ञायक एक स्वरूपमें लीन परमुशक्लध्यानसे जो परमवीतराग तपश्चरणमें लीन, निरुपराग (निर्विकार) संयमी ध्याता है, उस द्रव्यकर्म-भावकर्मकी सेनाको लूटनेवाले संयमीको वास्तवमें परम समाधि है।
[अब इस १२२ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं: ]
[ श्लोकार्थ:-] किसी ऐसी ( –अवर्णनीय, परम) समाधि द्वारा उत्तम आत्माओंके हृदयमें स्फुरित, समताकी अनुयायिनी सहज आत्मसंपदाका जबतक अनुभव नहीं करते, तबतक हमारे जैसोंका जो विषय है उसका हम अनुभवन नहीं करते। २००।
१। अनुयायिनी = अनुगामिनी; साथ साथ रहनेवाली; पीछे पीछे आनेवाली। ( सहज आत्म
संपदा समाधिकी अनुयायिनी है।) २। सहज आत्मसंपदा मुनियोंका विषय है।
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