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परम-समाधि अधिकार
अथ अखिलमोहरागद्वेषादिपरभावविध्वंसहेतुभूतपरमसमाध्यधिकार उच्यते।
वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण। जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स।।१२२ ।।
वचनोच्चारणक्रियां परित्यज्य वीतरागभावेन।
यो ध्यायत्यात्मानं परमसमाधिर्भवेत्तस्य।। १२२ ।। परमसमाधिस्वरूपाख्यानमेतत्।
क्वचिदशुभवंचनार्थं वचनप्रपंचांचितपरमवीतरागसर्वज्ञस्तवनादिकं कर्तव्यं परमजिनयोगीश्वरेणापि।
अब समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंके विध्वंसके हेतुभूत परम-समाधि अधिकार कहा जाता है।
गाथा १२२ __ अन्वयार्थ:-[ वचनोच्चारणक्रियां] वचनोच्चारणकी क्रिया [ परित्यज्य ] परित्याग कर [ वीतरागभावेन ] वीतरागभावसे [ यः] जो [आत्मानं ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [ तस्य ] उसे [ परमसमाधिः ] परम समाधि [ भवेत् ] है।
टीका:-यह, परम समाधिके स्वरूपका कथन है।
कभी अशुभवंचनार्थ वचनविस्तारसे शोभित परमवीतराग सर्वज्ञका स्तवनादिक परम जिनयोगीश्वरको भी करनेयोग्य है।
* अशुभवंचनार्थ = अशुभसे छूटनेके लिये; अशुभसे बचनेके लिये; अशुभके त्याग के लिये।
रे त्याग वचनोच्चार किरिया वीतरागी भावसे । ध्यावे निजात्मा जो, समाधि परम होती है उसे ।। १२२ ।।
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