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नियमसार
( पृथ्वी ) निजात्मगुणसंपदं मम हृदि स्फुरन्तीमिमां समाधिविषयामहो क्षणमहं न जाने पुरा । जगत्रितयवैभवप्रलयहेतुदुः कर्मणां
प्रभुत्वगुणशक्तिः खलु हतोस्मि हा संसृतौ ।। ९९८ ।।
( आर्या )
भवसंभवविषभूरुहफलमखिलं दुःखकारणं बुद्धा । आत्मनि चैतन्यात्मनि संजातविशुद्धसौख्यमनुभुंक्ते ।। १९९ ।।
इति
सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः अष्टमः श्रुतस्कन्धः ।।
। १९७ ।
[ श्लोकार्थ :- ] अहो ! मेरे हृदयमें स्फुरायमान इस निज आत्मगुण-संपदाको कि जो समाधिका विषय है उसे-मैंने पहले एक क्षण भी नहीं जाना । वास्तवमें, तीन लोकके वैभवके प्रलयके हेतुभूत दुष्कर्मोंकी प्रभुत्वगुणशक्तिसे ( - दुष्ट कर्मोंके प्रभुत्वगुणकी शक्तिसे), अरेरे! मैं संसारमें मारा गया हूँ ( - हैरान हो गया हूँ) । १९८ ।
[ श्लोकार्थ :- ] भवोत्पन्न ( - संसारमें उत्पन्न होनेवाले ) विषवृक्षके समस्त फलको दुःखका कारण जानकर मैं चैतन्यात्मक आत्मामें उत्पन्न विशुद्धसौख्यका अनुभवन करता हूँ।
१९९ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान है और पाँच इंद्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें ( अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निर्ग्रथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें ) शुद्धनिश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार नामका आठवाँ श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।
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