________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
परम-समाधि अधिकार
२४६
सकलकर्मकलंकपंकविनिर्मुक्तमहानंदहेतुभूतपरमसमताभावेन विना कान्तारवासावासेन प्रावृषि वृक्षमूले स्थित्या च ग्रीष्मेऽतितीव्रकरकरसंतप्तपर्वताग्रग्रावनिषण्णतया वा हेमन्ते च रात्रिमध्ये ह्याशांबरदशाफलेन च, त्वगस्थिभूतसर्वाङ्गक्लेशदायिना महोपवासेन वा, सदाध्ययनपटुतया च, वाग्विषयव्यापारनिवृत्तिलक्षणेन संततमौनव्रतेन वा किमप्युपादेयं फलमस्ति केवलद्रव्यलिंगधारिणः श्रमणाभासस्येति।
तथा चोक्तम् अमृताशीतौ
( मालिनी) "गिरिगहनगुहाद्यारण्यशून्यप्रदेशस्थितिकरणनिरोधध्यानतीर्थोपसेवा। प्रपठनजपहोमैर्ब्रह्मणो नास्ति सिद्धिः मृगय तदपरं त्वं भोः प्रकारं गुरुभ्यः।।''
तथा हि
केवल द्रव्यलिंगधारी श्रमणाभासको समस्त कर्मकलंकरूप कीचड़ विमुक्त और महा आनंदके हेतुभूत परमसमताभाव बिना, (१) वनवासमें वसकर वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे स्थिति करनेसे , ग्रीष्मऋतुमें प्रचंड सूर्यकी किरणोंसे संतप्त पर्वतके शिखरकी शिलापर बैठनेसे और हेमंतऋतुमें रात्रिमें दिगंबरदशामें रहनेसे , (२) त्वचा और अस्थिरूप ( मात्र हाड़-चामरूप) होगये सारे शरीरको क्लेशदायक महा उपवाससे , (३) सदा अध्ययनपटुतासे ( अर्थात् सदा शास्त्रपठन करनेसे), अथवा (४) वचनसंबंधी व्यापारकी निवृत्तिस्वरूप सतत मौनव्रतसे क्य किंचित् उपादेय फल है ? (अर्थात् मोक्षके साधनरूप फल किंचित् भी नहीं है।)
इसीप्रकार ( श्री योगींद्रदेवकृत) अमृताशीतिमें (५९ वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] पर्वतकी गहन गुफा आदिमें अथवा वनके शून्य प्रदेशमें रहनेसे , इंद्रियनिरोधसे, ध्यानसे, तीर्थसेवासे (तीर्थस्थानमें वास करनेसे), पठनसे, जपसे तथा होमसे ब्रह्मकी (आत्माकी) सिद्धि नहीं है; इसलिये, हे भाई! तू गुरुओं द्वारा उससे अन्य प्रकारको ढूँढ।”
और (इस १२४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं) :---
* उपादेय = चाहने योग्य; प्रशंसा योग्य।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com