________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
२२९
(हरिणी) वनचरभयाद्धावन् दैवाल्लताकुलवालधि: किल जडतया लोलो वालव्रजेऽविचलं स्थितः। बत स चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः।।''
तथा हि
(आर्या) क्षमया क्रोधकषायं मानकषायं च मार्दवेनैव। मायामार्जवलाभाल्लोभकषायं च शौचतो जयतु।। १८२ ।।
उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं। जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स।। ११६ ।।
नहीं जा सकते ऐसा जो मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाला मायारूपी महान गड्ढा उससे डरते रहना योग्य है।”
“[ श्लोकार्थ:-] *वनचरके भयसे भागती हुई सुरा गायकी पूँछ दैवयोगसे बेलमें उलझ जाने पर जड़ताके कारण बालोंके गुच्छेके प्रति लोलुपतावाली वह गाय ( अपने सुंदर बालोंको न टूटने देनेके लोभमें) वहाँ अविचलरूपसे खड़ी रह गई, और अरे रे! उस गायको वनचर द्वारा प्राणसे भी विमुक्त कर दिया गया! ( अर्थात् उस गायने बालोंके लोभमें प्राण भी गवाँ दिये!) जिन्हें तृष्णा परिणमित हुई है उन्हें प्रायः ऐसी ही विपत्तियाँ आती
और (इस ११५ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ]:
[श्लोकार्थ:-] क्रोधकषायको क्षमासे, मानकषायको मार्दवसे ही, मायाको आर्जवकी प्राप्तिसे और लोभकषायको शौचसे ( -संतोषसे ) जीतो। १८२ ।
उत्कृष्ट निज अवबोध अथवा ज्ञान अथवा चित्तको । धारे मुनि जो पालता वह नित्य प्रायश्चित्तको ।। ११६ ।।
* वनचर = वनमें रहनेवाले , भील आदि मनुष्य अथवा शेर आदि जंगली पशु।
Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com