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शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार
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तथाचोक्तं श्री गुणभद्रस्वामिभिः
( वसंततिलका) “चित्तस्थमप्यनवबुद्धय हरेण जाडयात् क्रुद्धा बहि: किमपि दग्धमनङ्गबुद्धया। घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः।।"
(वसंततिलका) "चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं
यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत्। क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय । मानो मनागपि हतिं महतीं करोति।।''
(अनुष्टुभ् ) 'भेयं मायामहागन्मिथ्याघनतमोमयात्। यस्मिन् लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः।।''
इसीप्रकार ( आचार्यवर ) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २१६ , २१७, २२१ तथा २२३ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि:
“ [ श्लोकार्थ:-] कामदेव (अपने ) चित्तमें रहने पर भी (अपनी) जड़ताके कारण उसे न पहिचानकर, शंकरने क्रोधी होकर बाह्यमें किसीको कामदेव समझकर उसे जला दिया। (चित्तमें रहेनेवाले कामदेव तो जीवित होनेके कारण) उसने की हुई घोर अवस्थाको (-कामविह्वल दशाको) शंकर प्राप्त हुए। क्रोधके उदयसे (-क्रोध उत्पन्न होनेसे ) किसे कार्यहानि नहीं होती?" ।
[ श्लोकार्थ:-] (युद्धमें भरतने बाहुबली पर चक्र छोड़ा परंतु वह चक्र बाहुबलिके दाहिने हाथमें आकर स्थिर हो गया।) अपने दाहिने हाथमें स्थित ( उस) चक्रको छोड़कर जब बाहुबलिने प्रव्रज्या ली तभी (तुरन्त ही) वे उस कारण मुक्ति प्राप्त कर लेते, परंतु वे ( मानके कारण मुक्ति प्राप्त न करके) वास्तवमें दीर्घ काल तक प्रसिद्ध (मानकृत) कलेशको प्राप्त हुए। थोड़ा भी मान महा हानि करता है!”
“[ श्लोकार्थ:-] जिसमें (-जिस गड्ढेमें) छिपे हुए क्रोधादिक भयंकर सर्प देखे
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