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नियमसार
२२७
क्रोधं क्षमया मानं स्वमार्दवेन आर्जवेन मायां च। संतोषेण च लोभं जयति खलु चतुर्विधकषायान्।। ११५ ।।
चतुष्कषायविजयोपायस्वरूपाख्यानमेतत्।
जघन्यमध्यमोत्तमभेदात्क्षमास्तिस्रो भवन्ति। अकारणादप्रियवादिनो मिथ्यादृष्टेरकारणेन मां त्रासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा। अकारणेन संत्रासकरस्य ताडनवधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा। वधे सत्यमूर्तस्य परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति परमसमरसीभावस्थितिरुत्तमा क्षमा। आभिः क्षमाभिः क्रोधकषायं जित्वा, मानकषायं मार्दवेन च, मायाकषायं चार्जवेण, परमतत्त्वलाभसन्तोषेण लोभकषायं चेति।
गाथा ११५
अन्वयार्थ:-[ क्रोधं क्षमया ] क्रोधको क्षमासे, [ मानं स्वमार्दवेन ] मानको निज मार्दवसे , [मायां च आर्जवेन] मायाको आर्जवसे [च] तथा [ लोभं संतोषेण ] लोभको संतोषसे-[ चतुर्विधकषायान् ] इसप्रकार चतुर्विध कषायोंको [ खलु जयति] (योगी) वास्तवमें जीतते हैं।
टीका:-यह, चार कषायों पर विजय प्राप्त करने के लिये उपायके स्वरूपका कथन
जघन्य, मध्यम और उत्तम ऐसे (तीन) भेदोंके कारण क्षमा तीन (प्रकारकी) है। (१) 'बिना कारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टिको बिना कारण मुझे त्रास देनेका उद्योग वर्तता है, वह मेरे पुण्यसे दूर हुआ;'-ऐसा विचारकर क्षमा करना वह प्रथम क्षमा है। (२) ( मुझे) बिना-कारण त्रास देनेवालेको 'ताड़नका और वधका परिणाम वर्तता है, वह मेरे सुकृतसे दूर हुआ;'-ऐसा विचार कर क्षमा करना वह द्वितीय क्षमा है। (३) वध होनेसे अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होती-ऐसा समझकर परम समरसीभावमें स्थित रहना वह उत्तम क्षमा है। इन (तीन) क्षमाओं द्वारा क्रोधकषायको जीतकर, मार्दव द्वारा मानकषायको, आर्जव द्वारा मायाकषायको तथा परमतत्त्वकी प्राप्तिरूप संतोषसे लोभकषायको (योगी) जीतते है।
१। ताड़न = मार मारना वह। २। वध = मार डालना वह । ३। मार्दव = नरमाई; कोमलता; निर्मानता। ४। आर्जव = ऋजुता; सरलता।
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