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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates शुद्धनिश्चय - प्रायश्चित्त अधिकार
इह हि सकलकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तमुक्तम्।
क्रोधादिनिखिलमोहरागद्वेषविभावस्वभावक्षयकारणनिजकारणपरमात्मस्वभावभावना यां सत्यां निसर्गवृत्त्या प्रायश्चित्तमभिहितम्, अथवा परमात्मगुणात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपसहजज्ञानादिसहजगुणचिंता प्रायश्चित्तं भवतीति।
( शालिनी ) प्रायश्चित्तमुक्तमुच्चैर्मुनीनां कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च ।
किं च स्वस्य ज्ञानसंभावना वा सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे।। १८१ ।।
कोहं खमया माणं समद्द्वेणज्जवेण मायं च । संतोसेण य लोहं जयदि खु ए चहुविहकसाए।। ११५ ।।
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[ निजगुणचिंता ] निज गुणोंका चिंतन करना वह [ निश्चयतः ] निश्चयसे [ प्रायश्चित्तं भणितम् ] प्रायश्चित कहा है।
टीका:-यहाँ (इस गाथामें ) सकल कर्मोंको मूलसे उखाड़ देनेमें समर्थ ऐसा निश्चय - प्रायश्चित्त कहा गया है।
क्रोधादिक समस्त मोहरागद्वेषरूप विभावस्वभावोंके क्षयके कारणभूत निज कारणपरमात्माके स्वभावकी भावना होने पर निसर्गवृत्तिके कारण ( अर्थात् स्वाभाविक - सहज परिणति होनेके कारण ) प्रायश्चित्त कहा गया है; अथवा, परमात्माके गुणात्मक ऐसे जो शुद्ध-अंत:तत्त्वरूप (निज) स्वरूपके सहजज्ञानादिक सहजगुण उनका चिंतन करना वह प्रायश्चित्त है।
[अब इस ११४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं: ]
[ श्लोकार्थ :- ] मुनियोंको कामक्रोधादि अन्य भावोंके क्षयकी जो संभावना अथवा तो अपने ज्ञानकी जो संभावना ( - सम्यक् भावना) वह उग्र प्रायश्चित्त कहा है। संतोंने आत्मप्रवादमें (आत्मप्रवाद पूर्व नामक शास्त्रोंमें) ऐसा जाना है ( अर्थात् जानकर कहा है)।
१८१ ।
अभिमान मार्दवसे तथा जीते क्षमासे क्रोधको । कोटिल्य आर्जव तथा संतोष द्वारा लोभको ।। ११५ ।।
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