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परम-आलोचना अधिकार
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(हरिणी) सहजपरमं तत्त्वं तत्त्वेषु सप्तसु निर्मलं सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम्। विशदविशदं नित्यं बाह्यप्रपंचपराङ्मुखं किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः ।। १७७ ।।
(द्रुतविलंबित) जयति शांतरसामृतवारिधिप्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः। अतुलबोधदिवाकरदीधितिप्रहतमोहतमस्समितिर्जिनः।। १७८ ।।
(द्रुतविलंबित) विजितजन्मजरामृतिसंचयः प्रहतदारुणरागकदम्बकः। अघमहातिमिरव्रजभानुमान् जयति यः परमात्मपदस्थितः।। १७९ ।।
सहित विकसित निज गुणोंसे विकसित निज गुणोंसे प्रफुल्लित (-खिला हुआ) है, जिसकी सहज अवस्था स्फुटित (-प्रकटित) है और जो निरंतर निज महिमामें लीन है। १७६ ।
[श्लोकार्थ:-] सात तत्त्वोंमें सहज परम तत्त्व निर्मल है, सकल-विमल ( सर्वथा विमल) ज्ञानका आवास है, निरावरण है, शिव (कल्याणमय ) है, स्पष्ट-स्पष्ट है, नित्य है, बाह्य प्रपंचसे पराङ्मुख है और मुनिको भी मनसे तथा वाणीसे अति दूर है; उसे हम नमन करते हैं। १७७।
[श्लोकार्थ:-] जो (जिन) शांत रसरूपी अमृतके समुद्रको ( उछालनेके लिये ) प्रतिदिन उदयमान सुंदर चंद्र समान है और जिसने अतुल ज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंसे मोहतिमिरके समूहका नाश किया है, वह जिन जयवंत है। १७८ ।
[श्लोकार्थ:-] जिसने जन्म-जरा-मृत्युके समूहको जीत लिया है, जिसने दारुण रागके समूहका हनन कर दिया है, जो पापरूपी महा अंधकारके समूहके लिये सूर्य समान है तथा जो परमात्मपदमें स्थित है, वह जयवंत है। १७९ ।
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