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नियमसार
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( स्रग्धरा) सानन्दं तत्त्वमज्जज्जिनमुनिहृदयाम्भोजकिंजल्कमध्ये निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम्। शुद्धज्ञानप्रदीपप्रहतयमिमनोगेहघोरान्धकारं तद्वन्दे साधुवन्द्यं जननजलनिधौ लंघने यानपात्रम्।।१७४ ।।
(हरिणी) अभिनवमिदं पापं यायाः समग्रधियोऽपि ये विदधति परं ब्रूमः किं ते तपस्विन एव हि। हृदि विलसितं शुद्धं ज्ञानं च पिंडमनुत्तमं पदमिदमहो ज्ञात्वा भूयोऽपि यान्ति सरागताम्।।१७५ ।।
(हरिणी) जयति सहजं तत्त्वं तत्त्वेषु नित्यमनाकुलं सततसुलभं भास्वत्सम्यग्दृशां समतालयम्। परमकलया सार्धं वृद्धं प्रवृद्धगुणैर्निजैः स्फुटितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम्।। १७६ ।।
[ श्लोकार्थ:-] तत्त्वमें मग्न ऐसे जिनमुनिके हृदयकमलकी केसरमें जो आनंद सहित विराजमान है, जो बाधा रहित है, जो विशुद्ध है, जो कामदेवके बाणोंकी गहन (-दुर्भेद्य) सेनाको जला देने के लिये दावानल समान है और जिसने शुद्धज्ञानरूप दीपक द्वारा मुनियों के मनोगृहके घोर अंधकारका नाश किया है, उसे-साधुओं द्वारा वंद्य तथा जन्मार्णवको लाँघ जानेमें नौकारूप उस शुद्ध तत्त्वको -मैं वंदन करता हूँ। १७४।
[श्लोकार्थ:-] हम पूछते हैं कि-जो समग्र बुद्धिमान होनेपर भी दूसरेको ‘यह नवीन पाप कर' ऐसा उपदेश देते हैं, वे क्या वास्तवमें तपस्वी हैं ? अहो! खेद है कि वे हृदयमें विलसित शुद्धज्ञानरूप और सर्वोत्तम पिंडरूप इस पदको जानकर पुन: भी सरागताको प्राप्त होते हैं ! १७५ ।
[ श्लोकार्थ:-] तत्त्वोंमें वह सहज तत्त्व जयवंत है कि जो सदा अनाकुल है, जो निरंतर सुलभ है, जो प्रकाशमान है, जो सम्यग्दृष्टियोंको समताका घर है, जो परम कला
* पिंड = (१) पदार्थ; (२) बल।
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