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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates परम-आलोचना अधिकार २२० (मालिनी) अथ जिनपतिमार्गालोचनाभेदजालं परिहृतपरभावो भव्यलोकः समन्तात्। तदखिलमवलोक्य स्वस्वरूपं च बुद्धवा स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः।। १७१ ।। (वसंततिलका) आलोचना सततशुद्धनयात्मिका या निर्मुक्तिमार्गफलदा यमिनामजनम्। शुद्धात्मतत्त्वनियताचरणानुरूपा स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ।। १७२ ।। (शालिनी) शुद्धं तत्त्वं बुद्धलोकत्रयं यद् बुवा बुवा निर्विकल्पं मुमुक्षुः। तत्सिद्धयर्थं शुद्धशीलं चरित्वा सिद्धिं यायात् सिद्धिसीमन्तिनीशः।। १७३ ।। [ श्लोकार्थ:-] जो भव्य लोक (भव्यजनसमूह) जिनपतिके मार्गमें कहे हुए समस्त आलोचनाके भेदजालको देखकर तथा निज स्वरूपको जानकर सर्व ओरसे परभावको छोड़ता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है ( अर्थात् मुक्तिसुंदरीका पति होता है)। १७१। [ श्लोकार्थ:-] संयमियोंको सदा मोक्षमार्गका फल देनेवाली तथा शुद्धआत्मतत्त्वमें *नियत आचरणके अनुरूप ऐसी जो निरंतर शुद्धनयात्मक आलोचना वह मुझे संयमीको वास्तवमें कामधेनुरूप हो। १७२ । [ श्लोकार्थ:-] मुमुक्षु जीव तीन लोकको जाननेवाले निर्विकल्प शुद्ध तत्त्वको भलीभाँति जानकर उसकी सिद्धिके हेतु शुद्ध शीलका (चारित्रका) आचरण करके, सिद्धिरूपी स्त्रीका स्वामी होता है-सिद्धिको प्राप्त करता है। १७३। * नियत = निश्चित; दृढ; लीन; परायण। [ आचरण शुद्ध आत्मतत्त्वके आश्रित होता है।] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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