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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २१९ तीव्रचारित्रमोहोदयबलेन पुंवेदाभिधाननोकषायविलासो मदः। अत्र मदशब्देन मदन: कामपरिणाम इत्यर्थः। चतुरसंदर्भगर्भीकृतवैदर्भकवित्वेन आदेयनामकर्मोदये सति सकलजनपूज्यतया, मातृपितृसम्बन्धकुलजातिविशुद्धया वा, शतसहस्रकोटिभटाभिधानप्रधानब्रह्मचर्यव्रतोपार्जितनिरुपमबलेन च, दानादिशुभकर्मोपार्जितसंपवृद्धिविलासेन, अथवा बुद्धितपोवैकुर्वणौषधरसबलाक्षीणर्द्धिभिः सप्तभिर्वा, कमनीयकामिनीलोचनानन्देन वपुर्लावण्यरसविसरेण वा आत्माहंकारो मानः। गुप्तपापतो माया। युक्तस्थले धनव्ययाभावो लोभः; निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वपरिग्रहात् अन्यत् परमाणुमात्रद्रव्यस्वीकारो लोभः। एभिश्चतुर्भिर्वा भावैः परिमुक्त: शुद्धभाव एव भावशुद्धिरिति भव्यप्राणिनां लोकालोकप्रदर्शिभिः परमवीतरागसुखामृतपानपरितृप्तैर्भगवद्भिरर्हद्भिरभिहित इति। तीव्र चारित्रमोहके उदयके कारण पुरुषवेद नामक नोकषायका विलास वह मद है। यहाँ ‘मद' शब्दका अर्थ 'मदन' अर्थात् कामपरिणाम है। (१) चतुर वचनरचनावाले *वैदर्भकवित्वके कारण, आदेयनामकर्मका उदय होनेपर समस्त जनों द्वारा पूजनीयतासे , (२) माता-पिता संबंधी कुल-जातिकी विशुद्धिसे, (३) प्रधान ब्रह्मचर्यव्रत द्वारा उपार्जित लक्षकोटि सुभट समान निरुपम बलसे, (४) दानादि शुभ कर्म द्वारा उपार्जित संपत्तिकी वृद्धिके विलाससे, (५) बुद्धि , तप, विक्रिया, औषध, रस, बल और अक्षीण-इन सात ऋद्धिओंसे , अथवा (६) सुंदर कामिनियोंकें लोचनको आनंद प्राप्त करने वाले शरीरलावण्यरसके विस्तारसे होनेवाले आत्म-अहंकार ( आत्माका अहंकारभाव) वह मान है। गुप्त पापसे माया होती है। योग्य स्थान धनव्ययका अभाव वह लोभ है; निश्चयसे समस्त परिग्रहका परित्याग जिसका लक्षण ( स्वरूप) है ऐसे निरंजन निज परमात्मतत्त्वके परिग्रहसे अन्य परमाणुमात्र द्रव्यका स्वीकार वह लोभ है। इन चारों भावोंसे परिमुक्त ( रहित) शुद्धभाव वही भावशुद्धि है ऐसा भव्य जीवोंको लोकालोकदर्शी, परमवीतराग सुखामृतके पानसे परितृप्त अहंत भगवंतोंने कहा है। [ अब इस परम-आलोचना अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव नौ श्लोक कहते हैं:] * वैदर्भकवि = एक प्रकारकी साहित्यप्रसिद्ध सुंदर काव्यरचनामें कुशल कवि । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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