________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
परम-आलोचना अधिकार
२१८
(मालिनी) जयति सहजतेजःप्रास्तरागान्धकारो मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः । विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः।। १७० ।।
मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति। परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं।। ११२ ।।
मदमानमायालोभविवर्जितभावस्तु भावशुद्धिरिति। परिकथितो भव्यानां लोकालोकप्रदर्शिभिः।। ११२ ।।
शुद्धनिश्चयालोचनाधिकारो
भावशुद्धयभिधानपरमालोचनास्वरूपप्रतिपादनद्वारेण पसंहारोपन्यासोऽयम्।
है ( अर्थात् मुक्तिसुंदरीका पति होता है)। १६९ ।
[ श्लोकार्थ:-] जिसने सहज तेजसे रागरूपी अंधकारका नाश किया है, जो मुनिवरोंके मनमें वास करता है, जो शुद्ध-शुद्ध है, जो विषयसुखमें रत जीवोंको सर्वदा दुर्लभ है, जो परम सुखका समुद्र है, जो शुद्ध ज्ञान है तथा जिसने निद्राका नाश किया है, ऐसा यह (शुद्ध आत्मा) जयवंत है। १७०।
गाथा ११२ अन्वयार्थ:-[ मदमानमायालोभविवर्जितभावः तु] मद [ मदन], मान, माया और लोभ रहित भाव वह [भावशुद्धिः ] भावशुद्धि है [इति ] ऐसा [भव्यानाम् ] भव्योंको [ लोकालोकप्रदर्शिभिः ] लोकालोकके द्रष्टाओंने [ परिकथितः ] कहा है।
टीका:-यह, भावशुद्धिनामक परम-आलोचनाके स्वरूपके प्रतिपादन द्वारा शुद्धनिश्चय-आलोचना अधिकारके उपसंहारका कथन है।
अहंत लोकालोक द्रष्टा का कथन है भव्यको । 'हे भाव-शुद्धि मान , माया, लोभ , मद बिन भाव जो ।। ११२।।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com