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http://www.AtmaDharma.com for updates परम - आलोचना अधिकार
आलोचनमालुंछनमविकृतिकरणं च भावशुद्धिश्च । चतुर्विधमिह परिकथितं आलोचनलक्षणं समये ।। १०८ ।।
आलोचनालक्षणभेदकथनमेतत्।
२०८
भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतसकलजनताश्रुतिसुभगसुन्दरानन्दनिष्यन्द्यनक्षरात्मक
दिव्यध्वनिपरिज्ञानकुशलचतुर्थज्ञानधरगौतममहर्षिमुखकमलविनिर्गतचतुरसन्दर्भगर्भीकृतरा वान्ता-दिसमस्तशास्त्रार्थसार्थसारसर्वस्वीभूतशुद्धनिश्चयपरमालोचनायाश्चत्वारो
भवन्ति। ते वक्ष्यमाणसूत्रचतुष्टये निगद्यन्त इति ।
विकल्पा
गाथा १०८
अन्वयार्थः-[ इह ] अब, [आलोचनलक्षणं ] आलोचनाका स्वरूप [ आलोचनम् ] 'आलोचन, [आलुंछनम् ] आलुंछन, [अविकृतिकरणम् ] अविकृतिकरेण [च] और [ भावशुद्धिः च ] भावशुद्धि [ चतुर्विधं ] ऐसे चार प्रकारका [ समये ] शास्त्रमें [ परिकथितम् ] कहा है।
टीका:-यह, आलोचनाके स्वरूपके भेदोंका कथन है।
भगवान अर्हंतके मुखारविंदसे निककी हुई, ( श्रवणके लिये आई हुई ) सकल जनताको श्रवणका सौभाग्य प्राप्त हो ऐसी, सुंदर - आनंदस्यंदी ( सुंदर - आनंदझरती ), अनक्षरात्मक जो दिव्यध्वनि, उसके परिज्ञानमें कुशल चतुर्थज्ञानधर ( मन:पर्ययज्ञानधारी ) गौतममहर्षिके मुखकमलसे निकली हुई जो चतुर वचनरचना, उसके गर्भमें विद्यमान राद्धांतादि (-सिद्धांतादि ) समस्त शास्त्रोंके अर्थसमुहके सारसर्वस्वरूप शुद्ध-निश्चय-परमआलोचनाके चार भेद हैं। वे भेद अब आगे कहे जाने वाले चार सूत्रोमें कहे जायेंगे।
[अब इस १०८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
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हैं:]
१। स्वयं अपने दोषोंको सूक्ष्मतासे देख लेना अथवा गुरुके समक्ष दोषोंका निवेदन करना सो व्यवहार - आलोचन है । निश्चय - आलोचनका स्वरूप १०९ वीं गाथामें कहा गया है।
२। आलुंछन = ( दोषोंका) आलुंचन अर्थात् उखाड़ देना वह।
३। अविकृतिकरण = विकाररहितता करना वह । ४। भावशुद्धि = भावोंको शुद्ध करना वह।