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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार २०९ (इंद्रवजा) आलोचनाभेदममुं विदित्वा मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम्। स्वात्मस्थितिं याति हि भव्यजीवः तस्मै नमः स्वात्मनि निष्ठिताय।। १५३ ।। जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणाम। आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं।। १०९ ।। यः पश्यत्यात्मानं समभावे संस्थाप्य परिणामम्। आलोचनमिति जानीहि परमजिनेन्द्रस्योपदेशम्।। १०९ ।। इहालोचनास्वीकारमात्रेण परमसमताभावनोक्ता। यः सहजवैराग्यसुधासिन्धुनाथडिंडीरपिंडपरिपांडुरमंडनमंडलीप्रवृद्धिहेतुभूतराकानिशीथिनीनाथ: सदान्तर्मुखाकारमत्यपूर्वं निरंजननिजबोधनिलयं कारणपरमात्मानं निरव [ श्लोकार्थ:-] मुक्तिरूपी रमणीके संगमके हेतुभूत ऐसे इन आलोचनाके भेदोंको जानकर जो भव्य जीव वास्तवमें निज आत्मामें स्थिति प्राप्त करता है, उस स्वात्मनिष्ठित को ( -उस निजात्मामें लीन भव्य जीवको) नमस्कार हो। १५३। गाथा १०९ अन्वयार्थ:-[ यः ] जो (जीव) [ परिणामम् ] परिणामको [ समभावे] समभावमें [ संस्थाप्य] स्थापकर [ आत्मानं] (निज) आत्माको [पश्यति] देखता है, [आलोचनम् ] वह आलोचन है [इति] ऐसा [ परमजिनेन्द्रस्य ] परम जिनेंद्रका [ उपदेशम् ] उपदेश [जानीहि ] जान। टीका:-यहाँ, आलोचनाके स्वीकारमात्रसे परमसमताभावना कही गई है। सहजवैराग्यरूपी अमृतसागरके फेन-समूहके श्वेत शोभामंडलकी वृद्धिके हेतुभूत पूर्ण चंद्र समान (अर्थात् सहज वैराग्यमें ज्वार लाकर उसकी उज्ज्वलता बढ़ानेवाला) जो जीव सदा अंतर्मुखाकार (-सदा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे), अति अपूर्व, निरंजन निजबोधके स्थानभूत कारणपरमात्माको निरवशेषरूपसे अंतर्मुख निज स्वभावनिरत सहज समभावमें परिणाम स्थापे और देखे आतमा । जिनवर वृषभ उपदेशमें वह जीव है आलोचना ।। १०९।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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