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नियमसार
२०७
उक्तं चोपासकाध्ययने
(आर्या) ''आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम्।
__ आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम्।।'' तथा हि
आलोच्यालोच्य नित्यं सुकृतमसुकृतं घोरसंसारमूलं शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनैवावलम्बे। पश्चादुच्चैः प्रकृतिमखिलां द्रव्यकर्मस्वरूपां। नीत्वा नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मी व्रजामि।। १५२ ।।
आलोयणमालुंछण वियडीकरणं च भावसुद्धी य। चउविहमिह परिकहियं आलोयणलक्खणं समए।। १०८ ।।
और उपासकाध्ययनमें (श्री समंतभद्रस्वामीकृत रत्नकरंडश्रावकाचारमें १२५ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
___“[ श्लोकार्थ:-] किये हुए, कराये हुए और अनुमोदन किये हुए सर्व पापोंको निष्कपटरूपसे आलोचना करके, मरणपर्यंत रहनेवाला, निःशेष (-परिपूर्ण) महाव्रत धारण करना।"
और (इस १०७ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) :---
[श्लोकार्थ:-] घोर संसारके मूल ऐसे सुकृत और दुष्कृतको सदा आलोच आलोचकर मैं निरुपाधिक ( -स्वाभाविक) गुणवाले शुद्ध आत्माको आत्मासे ही अवलंबता हूँ। फिर द्रव्यकर्मस्वरूप समस्त प्रकृतिको अत्यंत नष्ट करके सहज-विलसती ज्ञानलक्ष्मीको मैं प्राप्त करूँगा। १५२।
है शास्त्रमें वर्णित चतुर्विधरूपमें आलोचना । आलोचना, अविकृतिकरण , अरु शुद्धता, आलुंछना ।। १०८ ।।
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