________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
१९८
(वसंततिलका) मुक्त्यङ्गनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीर्तिम्। संभावयामि समतामहमुच्चकैस्तां या संमता भवति संयमिनामजस्रम्।। १४० ।।
(हरिणी) जयति समता नित्यं या योगिनामपि दुर्लभा निजमुखसुखवार्धिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा। परमयमिनां प्रव्रज्यास्त्रीमनःप्रियमैत्रिका मुनिवरगणस्योच्चैः सालंक्रिया जगतामपि।। १४१ ।।
णिक्कसायस्स दंतस्स सूरस्स ववसायिणो। संसारभयभीदस्स पच्चक्खाणं सुहं हवे।।१०५ ।।
निःकषायस्य दान्तस्य शूरस्य व्यवसायिनः। संसारभयभीतस्य प्रत्याख्यानं सुखं भवेत्।। १०५ ।।
[ श्लोकार्थ:-] जो ( समता) मुक्तिरूपी स्त्रीके प्रति भ्रमर समान (रत) है, जो मोक्षसौख्यका मूल है, जो दुर्भावनारूपी तिमिरसमूहको ( नष्ट करने के लिये ) चंद्रके प्रकाश समान है और जो संयमियोंको तत्काल संमत है, उस समताको मैं अत्यंत भाता हूँ। १४०।
[श्लोकार्थ:-] जो योगियोंको भी दुर्लभ है, जो निजाभिमुख सुखके सागरमें ज्वार लानेके लिये पूर्ण चंद्रकी प्रभा (समान) है, जो परम संयमियोंकी दीक्षारूपी स्त्रीके मनको प्यारी सखी है तथा जो मुनिवरोंके समूहका तथा तीनलोकका भी अतिशयरूपसे आभूषण है, वह समता सदा जयवंत है। १४१।
गाथा १०५ अन्वयार्थ:-[ निःकषायस्य ] जो निःकषाय है, [दान्तस्य ] *दान्त है, [ शूरस्य ] शूरवीर है, [ व्यवसायिनः ] व्यवसायी ( –शुद्धताके प्रति उद्यमवंत) है और
* दान्त = जिसने इंद्रियोंका दमन किया हो ऐसा; जिसने इंद्रियोंको वश किया हो ऐसा; संयमी।
जो शूर एवं दान्त है, अकषाय उद्यमवान है। भव-भीरू है, होता उसे ही सुखद प्रात्याख्यान है ।।१०५ ।।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com