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इहान्तर्मुखस्य परमतपोधनस्य भावशुद्धिरुक्ता ।
विमुक्तसकलेन्द्रियव्यापारस्य मम भेदविज्ञानिष्वज्ञानिषु च समता; मित्रामित्रपरिणतेरभावान्न मे केनचिज्जनेन सह वैरम्; सहजवैराग्यपरिणतेः न मे काप्याशा विद्यते; परमसमरसीभावसनाथपरमसमाधिं प्रपद्येऽहमिति ।
तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवैः
तथा हि
नियमसार
(वसंततिलका)
‘मुक्त्वालसत्वमधिसत्त्वबलोपपन्नः स्मृत्वा परां च समतां कुलदेवतां त्वम्। संज्ञानचक्रमिदमङ्ग गृहाण तूर्णमज्ञानमन्त्रियुतमोहरिपूपमर्दि ।।''
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आशाको छोड़कर [ समाधिः प्रतिपद्यते ] मैं समाधिको प्राप्त करता हूँ ।
टीका:-यहाँ ( इस गाथामें ) अंतर्मुख परम - तपोधनकी भावशुद्धिका कथन है।
जिसने समस्त इंद्रियोंके व्यापारको छोड़ा है ऐसे मुझे भेदविज्ञानियों तथा अज्ञानियोंके प्रति समता है; मित्र- अमित्ररूप ( मित्ररूप अथवा शत्रुरूप) परिणतिके अभावके कारण मुझे किसी प्राणी के साथ वैर नहीं है; सहज वैराग्यपरिणतिके कारण मुझे कोई भी आशा नहीं वर्तती; परम समरसीभावसंयुक्त परम समाधिका मैं आश्रय करता हूँ (अर्थात् परम समाधिको प्राप्त करता हूँ ) ।
इसीप्रकार श्री योगींद्रदेवने ( अमृताशीतिमें २१वें श्लोक द्वारा ) कहा हैं कि :
“[ श्लोकार्थ :- ] हे भाई! स्वाभाविक बलसंपन्न ऐसा तू आलस्य छोड़कर, उत्कृष्ट समतारूपी कुलदेवीका स्मरण करके, अज्ञानमंत्री सहित मोहशत्रुका नाश करने वाले इस सम्यग्ज्ञानरूपी चक्र शीघ्र ग्रहण कर ।
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और (इस १०४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं ) :
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