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________________ १९७ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates इहान्तर्मुखस्य परमतपोधनस्य भावशुद्धिरुक्ता । विमुक्तसकलेन्द्रियव्यापारस्य मम भेदविज्ञानिष्वज्ञानिषु च समता; मित्रामित्रपरिणतेरभावान्न मे केनचिज्जनेन सह वैरम्; सहजवैराग्यपरिणतेः न मे काप्याशा विद्यते; परमसमरसीभावसनाथपरमसमाधिं प्रपद्येऽहमिति । तथा चोक्तं श्रीयोगीन्द्रदेवैः तथा हि नियमसार (वसंततिलका) ‘मुक्त्वालसत्वमधिसत्त्वबलोपपन्नः स्मृत्वा परां च समतां कुलदेवतां त्वम्। संज्ञानचक्रमिदमङ्ग गृहाण तूर्णमज्ञानमन्त्रियुतमोहरिपूपमर्दि ।।'' GG आशाको छोड़कर [ समाधिः प्रतिपद्यते ] मैं समाधिको प्राप्त करता हूँ । टीका:-यहाँ ( इस गाथामें ) अंतर्मुख परम - तपोधनकी भावशुद्धिका कथन है। जिसने समस्त इंद्रियोंके व्यापारको छोड़ा है ऐसे मुझे भेदविज्ञानियों तथा अज्ञानियोंके प्रति समता है; मित्र- अमित्ररूप ( मित्ररूप अथवा शत्रुरूप) परिणतिके अभावके कारण मुझे किसी प्राणी के साथ वैर नहीं है; सहज वैराग्यपरिणतिके कारण मुझे कोई भी आशा नहीं वर्तती; परम समरसीभावसंयुक्त परम समाधिका मैं आश्रय करता हूँ (अर्थात् परम समाधिको प्राप्त करता हूँ ) । इसीप्रकार श्री योगींद्रदेवने ( अमृताशीतिमें २१वें श्लोक द्वारा ) कहा हैं कि : “[ श्लोकार्थ :- ] हे भाई! स्वाभाविक बलसंपन्न ऐसा तू आलस्य छोड़कर, उत्कृष्ट समतारूपी कुलदेवीका स्मरण करके, अज्ञानमंत्री सहित मोहशत्रुका नाश करने वाले इस सम्यग्ज्ञानरूपी चक्र शीघ्र ग्रहण कर । 99 और (इस १०४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं ) : Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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