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नियमसार
निश्चयप्रत्याख्यानयोग्यजीवस्वरूपाख्यानमेतत्।
सकलकषायकलंकपंकविमुक्तस्य निखिलेन्द्रियव्यापारविजयोपार्जितपरमदान्तरूपस्य अखिलपरीषहमहाभटविजयोपार्जितनिजशूरगुणस्य निश्चयपरमतपश्चरणनिरतशुद्धभावस्य
संसारदुःखभीतस्य व्यवहारेण चतुराहारविवर्जनप्रत्याख्यानम्। किं च पुनः व्यवहारप्रत्याख्यानं कुदृष्टेरपि पुरुषस्य चारित्रमोहोदयहेतुभूतद्रव्यभावकर्मक्षयोपशमेन क्वचित् कदाचित् संभवति। अत एव निश्चयप्रत्याख्यानं हितम् अत्यासन्नभव्यजीवानाम्; यतः स्वर्णनामधेयधरस्य पाषाणस्योपादेयत्वं न तथांधपाषाणस्येति । ततः संसारशरीरभोगनिर्वेगता निश्चयप्रत्याख्यानस्य निखिलमोहरागद्वेषादिविविधविभावानां
कारणं, पुनर्भाविकाले संभाविनां
परिहार:
परमार्थप्रत्याख्यानम्,
अथवानागतकालोद्भव विविधान्तर्जल्पपरित्यागः शुद्धनिश्चयप्रत्याख्यानम् इति।
[ संसारभयभीतस्य ] संसारसे भयभीत है, उसे [ सुखं प्रत्याख्यानं ] सुखमय प्रत्याख्यान (अर्थात् निश्चय प्रत्याख्यान ) [ भवेत् ] होता है ।
टीका:- जो जीव निश्चयप्रत्याख्यानके योग्य हो ऐसे जीवके स्वरूपका यह कथन है ।
१
जो समस्त कषायकलंकरूप कीचड़से विमुक्त है, सर्व इंद्रियोंके व्यापार पर विजय प्राप्त कर लेने से जिसने परम दान्तरूपता प्राप्त की है, सकल परिषहरूपी महा सुभटोंको जीत लेनेसे जिसने निज शूरगुण प्राप्त किया है, निश्चय - परम - तपश्चरणमें निरत ऐसा शुद्धभाव जिसे वर्तता है तथा जो संसारदुःखसे भयभीत है, उसे ( यथोचित शुद्धता सहित ) व्यवहारसे चार आहारके त्यागरूप प्रत्याख्यान है । परंतु ( शुद्धता रहित) व्यवहार- प्रत्याख्यान तो कुदृष्टि (-मिथ्यात्वी ) पुरुषको भी चारित्रमोहके उदयके हेतुभूत द्रव्यकर्म-भावकर्मके क्षयोपशम द्वारा क्वचित् कदाचित् संभवित है । इसीलिये निश्चयप्रत्याख्यान अति- आसन्नभव्य जीवोंको हितरूप है; क्योंकि जिसप्रकार सुवर्णपाषाण नामक पाषाण उपादेय है उसीप्रकार अंधपाषाण नहीं है। इसलिये ( यथोचित् शुद्धता सहित ) संसार तथा शरीर संबंधी भोगकी निर्वेगता निश्चयप्रत्याख्यानका कारण है और भविष्य कालमें होनेवाले समस्त मोहरागद्वेषादि विविध विभावोंका परिहार वह परमार्थ प्रत्याख्यान है अथवा अनागत कालमें उत्पन्न होनेवाले विविध अंतर्जल्पोंका ( - विकल्पोंका ) परित्याग वह शुद्ध निश्चय - प्रत्याख्यान है ।
२
१ निर
रत; तत्पर; परायण; लीन ।
२ जिस पाषाणमें सुवर्ण होता है उसे सुवर्णपाषाण कहते हैं और जिसमें सुवर्ण नहीं होता उसे अंधपाषाण कहते हैं ।
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