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निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
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बाह्यास्ते सर्वे; इति मम निश्चयः।
(मालिनी) अथ मम परमात्मा शाश्वतः कश्चिदेक: सहजपरमचिच्चिन्तामणिनित्यशुद्धः। निरवधिनिजदिव्यज्ञानदृग्भ्यां समृद्धः किमिह बहुविकल्पैर्मे फलं बाह्यभावैः ।। १३८ ।।
जं किंचि मे दुच्चरित्तं सव्वं तिविहेण वोसरे। सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं।। १०३ ।।
यत्किंचिन्मे दुश्चरित्रं सर्वं त्रिविधेन विसृजामि।
सामायिकं तु त्रिविधं करोमि सर्वं निराकारम् ।। १०३ ।। आत्मगतदोषनिर्मुक्त्युपायकथनमिदम्।
जो शुभाशुभ कर्मके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले शेष बाह्य-अभ्यंतर परिग्रह, वे सब निज स्वरूपसे बाह्य हैं। ऐसा मेरा निश्चय है।
[अब इस १०२ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
[ श्लोकार्थ:-] मेरा परमात्मा शाश्वत है, कथंचित् एक है, सहज परम चैतन्यचिंतामणि है, सदा शुद्ध है और अनंत निज दिव्य ज्ञानदर्शनसे समृद्ध है। ऐसा है तो फिर बहु प्रकारके बाह्य भावोंसे मुझे क्या फल है ? । १३८ ।
गाथा १०३ अन्वयार्थ:-[ मे] मेरा [ यत् किंचित् ] जो कुछ भी [ दुश्चरित्रं] दुःचारित्र [ सर्वं ] उस सर्वको मैं [ त्रिविधेन ] त्रिविधसे (मन-वचन-कायासे ) [ विसृजामि] छोड़ता हूँ [तु]
और [ त्रिविधं सामायिकं] त्रिविध जो सामायिक (-चारित्र) [ सर्वं] उस सर्वको [ निराकारं करोमि ] निराकार ( –निर्विकल्प ) करता हूँ।
टीका:-आत्मगत दोषोंसे मुक्त होनेके उपायका यह कथन है।
जो कोई भी दुश्चरित मेरा सर्व त्रिविधिसे तजूं । अरु त्रिविध सामायिक चरित सब, निर्विकल्प आचरूँ ।।१०३।।
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