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________________ १९३ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।। १०२ ।। रहता है। १३७। एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः । शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ।। १०२ ।। एकत्वभावनापरिणतस्य सम्यग्ज्ञानिनो लक्षणकथनमिदम्। अखिलसंसृतिनन्दनतरुमूलालवालांभःपूरपरिपूर्णप्रणालिकावत्संस्थितकलेवरसंभवहेतुभूतद्रव्यभावकर्माभावादेक:, स एव निखिलक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पकोलाहलनिर्मुक्तसहजशुद्धज्ञानचेतनामतीन्द्रियं भुंजानः सन् शाश्वतो भूत्वा ममोपादेयरूपेण तिष्ठति, यस्त्रिकालनिरुपाधिस्वभावत्वात् निरावरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितः कारणपरमात्मा; ये शुभाशुभकर्मसंयोगसंभवाः शेषा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाः, स्वस्वरूपा गाथा १०२ अन्वयार्थः-[ ज्ञानदर्शनलक्षणः ] ज्ञानदर्शनलक्षणवाला [ शाश्वतः ] शाश्वत [ एकः ] एक [आत्मा] आत्मा [ मे ] मेरा है; [ शेषाः सर्वे ] शेष सब [ संयोगलक्षणा: भावा: ] संयोगलक्षणवाले भाव [ मे बाह्याः ] मुझसे बाह्य हैं। टीकाः-एकत्वभावनारूपसे परिणमित सम्यग्ज्ञानीके लक्षणका यह कथन है I त्रिकाल निरुपाधिक स्वभाववाला होनेसे निरावरण - ज्ञानदर्शनलक्षणसे लक्षित ऐसा जो कारणपरमात्मा वह, समस्त संसाररूपी नंदनवनके वृक्षोंकी जड़ के आसपास क्यारियों में पानी भरने के लिये जलप्रवाहसे परिपूर्ण नाली समान वर्तता हुआ जो शरीर उसकी उत्पत्तिमें हेतुभूत द्रव्यकर्म-भावकर्म रहित होने से एक हैं, और वही (कारणपरमात्मा) समस्त क्रियाकांडके आडंबरके विविध विकल्परूप कोलाहलसे रहित सहजशुद्धज्ञानचेतनाको अतींद्रियरूपसे भोगता हुआ शाश्वत रहकर मेरे लिये उपादेयरूपसे रहता है; दृगज्ञान- लक्षित और शाश्वत मात्र आत्मा मम अरे । अरु शेष सब संयोग लक्षित भाव मुझसे है परे ।। १०२ ।। Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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