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निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
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( अनुष्टुभ् ) "स्वयं कर्म करोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते। स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते।।''
उक्तं च श्रीसोमदेवपंडितदेवैः
(वसंततिलका) "एकस्त्वमाविशसि जन्मनि संक्षये च भोक्तुं स्वयं स्वकृतकर्मफलानुबन्धम्। अन्यो न जातु सुखदुःखविधौ सहाय: स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते।।"
तथा हि
(मंदाक्रांता) एको याति प्रबलदुरधाज्जन्म मृत्युं च जीवः कर्मद्वन्द्वोद्भवफलमयं चारुसौख्यं च दु:खम्। भूयो भुंक्ते स्वसुखविमुखः सन् सदा तीव्रमोहादेकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन्।। १३७ ।।
" [ श्लोकार्थ:-] आत्मा स्वयं कर्म करता है, स्वयं उसका फल भोगता है, स्वय संसारमें भ्रमता है तथा स्वयं संसारसे मुक्त होता है।"
और श्री सोमदेवपंडितदेवने ( यशस्तिलकचंपूकाव्यमें दूसरे अधिकारमें एकत्वानुप्रेक्षा का वर्णन करते हुए ११९ वें श्लोक द्वारा ) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] स्वयं किये हुए कर्मके फलाानुबंधको स्वयं भोगनेके लिये तू अकेला जन्ममें तथा मृत्युमें प्रवेश करता है, अन्य कोई ( स्त्री-पुत्र-मित्रादिक) सुख-दुःखके प्रकारोंमें बिलकुल सहायभूत नहीं होता; अपनी आजीविकाके लिये ( मात्र अपने स्वार्थके लिये स्त्रीपुत्रमित्रादिक) ठगोंकी टोली तुझे मिली है।"
और ( इस १०१ गाथाकी टीका पूर्ण करतें हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं):
[श्लोकार्थ:-] जीव अकेला प्रबल दुष्कृतसे जन्म और मृत्युको प्राप्त करता है; जीव अकेला सदा तीव्र मोहके कारण स्वसुखसे विमुख होता हुआ कर्मद्वंद्वजनित फलरूप (-शुभ और अशुभ कर्मके फलरूप) सुंदर सुख और दुःखको बारंबार भोगता है; जीव अकेला किसी भी प्रकार गुरु द्वारा एक तत्त्वको (चैतन्यतत्त्वको) प्राप्त करके उसमें स्थित
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