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नियमसार
१९१
एकश्च म्रियते जीवः एकश्च जीवति स्वयम्। एकस्य जायते मरणं एक: सिध्यति नीरजाः।। १०१ ।।
इह हि संसारावस्थायां मुक्तौ च निःसहायो जीव इत्युक्तः।
नित्यमरणे तद्भवमरणे च सहायमन्तरेण व्यवहारतश्चैक एव म्रियते; सादिसनिधनमूर्तिविजातीयविभावव्यंजननरनारकादिपर्यायोत्पत्तौ चासन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयादेशेन स्वयमेवोज्जीवत्येव। सर्वैबधुभिः परिरक्ष्यमाणस्यापि महाबलपराक्रमस्यैकस्य जीवस्याप्रार्थितमपि स्वयमेव जायते मरणम्; एक एव परमगुरुप्रसादासादितस्वात्माश्रयनिश्चयशुक्लध्यानबलेन स्वात्मानं ध्यात्वा नीरजाः सन् सद्यो निर्वाति।
तथा चोक्तम्
गाथा १०१ अन्वयार्थ:-[ जीवः एकः च ] जीव अकेला [ म्रियते ] मरता है [च ] और [ स्वयम् एक: ] स्वयं अकेला [ जीवति] जन्मता है; [एकस्य ] अकेलेका [ मरणं जायते] मरण होता है और [ एकः ] अकेला [ नीरजाः ] रज रहित होता हुआ [ सिध्यति] सिद्ध होता है।
टीका:-यहाँ ( -इस गाथामें ), संसारावस्थामें और मुक्तिमें जीव निःसहाय है ऐसा कहा है।
नित्य मरणमें ( अर्थात् प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्मके निषेकोंके क्षयमें) और उस भव संबंधी मरणमें, (अन्य किसी की) सहायताके बिना व्यवहारसे (जीव) अकेला ही मरता है; तथा सादि-सांत मूर्तिक विजातीयविभावव्यंजनपर्यायरूप नर-नारकादिपर्यायोंकी उत्पत्तिमें, आसन्न-अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनयके कथनसे (जीव अकेला ही) स्वयमेव जन्मता है। सर्व बंधुजनोंसे रक्षण किया जाने पर भी, महाबलपराक्रमवाले जीवका अकेलेका ही, अनिच्छित होनेपर भी, स्वयमेव मरण होता है; (जीव) अकेला ही परम गुरुके प्रसादसे प्राप्त स्वात्माश्रित निश्चयशुक्लध्यानके बलसे निज आत्माको ध्याकर रजरहित होता हुआ शीघ्र निर्वाण प्राप्त करता है।
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :---
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