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http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय - प्रत्याख्यान अधिकार
तथा हि
( मालिनी )
मम सहजसुदृष्टौ शुद्धबोधे चरित्रे सुकृतदुरितकर्मद्वन्द्वसंन्यासकाले। भवति स परमात्मा संवरे शुद्धयोगे न च न च भुवि कोऽप्यन्योस्ति मुक्त्यै पदार्थः ।। १३५ ।।
(पृथ्वी)
क्वचिल्लसति निर्मलं क्वचन निर्मलानिर्मलं क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत्। तदेव निजबोधदीपनिहताधमूछायकं सतां हृदयपद्मसद्मनि च संस्थितं निश्चलम् ।। १३६ ।।
एगो य मरदि जीवो एगो य जीवदि सयं । एगस्स जादि मरणं एगो सिज्झदि णीरओ।। १०१ ।।
और (इस १०० वीं गाथाकी टीका पूर्ण करतते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं ):
[ श्लोकार्थ :- ] मेरे सहज सम्यग्दर्शनमें, शुद्ध ज्ञानमें, चारित्रमें सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्मद्वंद्वके संन्यासकालमें ( अर्थात् प्रत्याख्यानमें), संवरमें और शुद्ध योगमें ( - शुद्धोपयोगमें) वह परमात्मा ही है ( अर्थात् सम्यग्दर्शनादि सभीका आश्रय-अवलंबन शुद्धात्मा ही है ); मुक्तिकी प्राप्ति के लिये जगतमें अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है। १३५।
१९०
मरता अकेला जीव एवं जन्म एकाकी करे । पाता अकेला ही मरण अरु मुत्ति एकाकी करे ।। १०१ ।।
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[ श्लोकार्थ :- ] जो कभी निर्मल दिखाई देता है, कभी निर्मल तथा अनिर्मल दिखाई देता है, तथा कभी अनिर्मल दिखाई देता है और इससे अज्ञानीके लिये जो गहन है, वही निजज्ञानरूपी दीपक -- कि जिसने पापतिमिरको नष्ट किया है वह सत्पुरुषोंके हृदयकमलरूपी घरमें निश्चलरूपसे संस्थित है । १३६ ।
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