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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार १८९ अशुभोपयोगपराङ्मुखस्य शुभोपयोगेऽप्युदासीनपरस्य साक्षाच्छुद्धोपयोगाभिमुखस्य मम परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभस्य शुदोपयोगेऽपि च स परमात्मा सनातनस्वभावत्वात्तिष्ठति। तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ (अनुष्टुभ् ) "तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि दर्शनम्। चारित्रं च तदेकं स्यात् तदेकं निर्मलं तपः।। (अनुष्टुभ् ) नमस्यं च तदेवैकं तदेवैकं च मंगलम्। उत्तमं च तदेवैकं तदेव शरणं सताम्।। (अनुष्टुभ् ) आचारश्च तदेवैकं तदेवावश्यकक्रिया। स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिनः।।'' तथा अशुभोपयोगसे पराङ्मुख, शुभोपयोगसके प्रति भी उदासीनतावाला और साक्षात् शुद्धोपयोगके संमुख जो मैं-परमागमरूपी पुष्परस जिसके मुखसे झरता है ऐसा पद्मप्रभउसके शुद्धोपयोगमें भी वह परमात्मा विद्यमान है कारण कि वह (परमात्मा) सनातन स्वभाववाला है। __ इसप्रकार एकत्वसप्ततिमें (-श्री पद्मनंदी-आचार्यवरकृत पद्मनंदिपंचविंशतिकाके एकत्वसप्तति नामक अधिकारमें ३९, ४० तथा ४१ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : “ [ श्लोकार्थ:-] वही एक (-वह चैतन्यज्योति ही एक ) परम ज्ञान है, वही एक पवित्र दर्शन है, वही एक चारित्र है तथा वही एक निर्मल तप है। [ श्लोकार्थ:-] सत्पुरुषोंको वही एक नमस्कारयोग्य है, वही एक मंगल है, वही एक उत्तम है तथा वही एक शरण है। [ श्लोकार्थ:-] अप्रमत्त योगीको वही एक आचार है, वही एक आवश्यक क्रिया है तथा वही एक स्वाध्याय है।" Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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