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नियमसार
१८९
अशुभोपयोगपराङ्मुखस्य शुभोपयोगेऽप्युदासीनपरस्य साक्षाच्छुद्धोपयोगाभिमुखस्य मम परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभस्य शुदोपयोगेऽपि च स परमात्मा सनातनस्वभावत्वात्तिष्ठति।
तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ
(अनुष्टुभ् ) "तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि दर्शनम्। चारित्रं च तदेकं स्यात् तदेकं निर्मलं तपः।।
(अनुष्टुभ् ) नमस्यं च तदेवैकं तदेवैकं च मंगलम्। उत्तमं च तदेवैकं तदेव शरणं सताम्।।
(अनुष्टुभ् ) आचारश्च तदेवैकं तदेवावश्यकक्रिया। स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिनः।।''
तथा अशुभोपयोगसे पराङ्मुख, शुभोपयोगसके प्रति भी उदासीनतावाला और साक्षात् शुद्धोपयोगके संमुख जो मैं-परमागमरूपी पुष्परस जिसके मुखसे झरता है ऐसा पद्मप्रभउसके शुद्धोपयोगमें भी वह परमात्मा विद्यमान है कारण कि वह (परमात्मा) सनातन स्वभाववाला है।
__ इसप्रकार एकत्वसप्ततिमें (-श्री पद्मनंदी-आचार्यवरकृत पद्मनंदिपंचविंशतिकाके एकत्वसप्तति नामक अधिकारमें ३९, ४० तथा ४१ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
“ [ श्लोकार्थ:-] वही एक (-वह चैतन्यज्योति ही एक ) परम ज्ञान है, वही एक पवित्र दर्शन है, वही एक चारित्र है तथा वही एक निर्मल तप है।
[ श्लोकार्थ:-] सत्पुरुषोंको वही एक नमस्कारयोग्य है, वही एक मंगल है, वही एक उत्तम है तथा वही एक शरण है।
[ श्लोकार्थ:-] अप्रमत्त योगीको वही एक आचार है, वही एक आवश्यक क्रिया है तथा वही एक स्वाध्याय है।"
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