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नियमसार
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भेदविज्ञानिनोऽपि मम परमतपोधनस्य पूर्वसंचितकर्मोदयबलाचारित्रमोहोदये सति यत्किंचिदपि दुश्चरित्रं भवति चेत्तत् सर्वं मनोवाक्कायसंशुद्धया संत्यजामि। सामायिकशब्देन तावच्चारित्रमुक्तं सामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धयभिधानभेदात्त्रिविधम्। अथवा जघन्यरत्नत्रयमुत्कृष्टं करोमि; नवपदार्थपरद्रव्यश्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं रत्नत्रयं साकारं, तत् स्वस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपस्वभावरत्नत्रयस्वीकारेण निराकारं शुद्धं करोमि इत्यर्थः। किं च, भेदोपचारचारित्रम् अभेदोपचारं करोमि, अभेदोपचारम् अभेदानुपचारं करोमि इति त्रिविधं
सामायिकमुत्तरोत्तरस्वीकारेण सहजपरमतत्त्वाविचलस्थितिरूपसहजनिश्चयचारित्रं, निराकारतत्त्वनिरतत्वान्निराकारचारित्रमिति।
तथा चोक्तं प्रवचनसारव्याख्यायाम्
मुझे परम-तपोधनको, भेदविज्ञानी होनेपर भी, पूर्वसंचित कर्मोंके उदयके कारण चारित्रमोहका उदय होनेपर यदि कुछ दुःचारित्र हो, तो उस सर्वको मन-वचन-कायाकी संशुद्धिसे मैं सम्यक् प्रकारसे छोड़ता हूँ। 'सामायिक' शब्दसे चारित्र कहा है--कि जो (चारित्र) सामायिक, छेदोपस्थापन अने परिहारविशुद्धि नामके तीन भेदोंके कारण तीन प्रकारका है। ( मैं उस चारित्रको निराकार करता हूँ।) अथवा मैं जघन्य रत्नत्रयको उत्कृष्ट करता हूँ; नव पदार्थरूप परद्रव्यके श्रद्धान-ज्ञान-आचरणस्वरूप रत्नत्रय साकार (सविकल्प) है, उसे निज स्वरूपके श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानरूप स्वभावरत्नत्रयके स्वीकार (अंगीकार) द्वारा निराकार-शुद्ध करता हूँ, ऐसा अर्थ है। और (दूसरे प्रकारसे कहा जाये तो), मैं भेदोपचार चारित्रको अभेदोपचार करता हूँ तथा अभेदोपचार चारित्रको अभेदानुपचार करता हूँ-इसप्रकार त्रिविध सामायिकको ( –चारित्रको) उत्तरोत्तर स्वीकृत (अंगीकृत) करनेसे सहज परम तत्त्वमें अविचल स्थितिरूप सहज निश्चयचारित्र होता है कि जो ( निश्चयचारित्र) निराकार तत्त्वमें लीन होनेसे निराकार चारित्र है।
इसप्रकार श्री प्रवचनसारकी ( अमृतचंद्राचार्यदेवकृत तत्त्वदीपिका नामक) टीकामें (१२वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :---
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