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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार १८६ ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो। आलंबणं च मे आदा अवसेसं च वोसरे।। ९९ ।। ममत्वं परिवर्जयामि निर्ममत्वमुपस्थितः। आलम्बनं च मे आत्मा अवशेषं च विसृजामि।। ९९ ।। अत्र सकलविभावसंन्यासविधिः प्रोक्तः। कमनीयकामिनीकांचनप्रभृतिसमस्तपरद्रव्यगुणपर्यायेषु ममकारं संत्यजामि। परमोपेक्षालक्षणलक्षिते निर्ममकारात्मनि आत्मनि स्थित्वा ह्यात्मानमवलम्ब्य च संसृतिपुरंधिकासंभोगसंभवसुखदुःखाद्यनेकविभावपरिणतिं परिहरामि। तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः गाथा ९९ अन्वयार्थ:-[ ममत्वं ] मैं ममत्वको [ परिवर्जयामि] छोड़ता हूँ और [ निर्ममत्वम् ] निर्ममत्वमें [उपस्थितः] स्थित रहता हूँ; [ आत्मा] आत्मा [ मे] मेरा [आलम्बनं च] आलंबन है [ अवशेषं च ] और शेष [ विसृजामि ] मैं छोड़ता हूँ। टीका:-यहाँ सकल विभावके संन्यासकी (-त्यागकी) विधि कही है। सुंदर कामिनी, 'कांचन आदि समस्त परद्रव्य-गुण-पर्यायोंके प्रति ममकारको मैं छोड़ता हूँ। परमोपेक्षालक्षणसे लक्षित निर्ममकारात्मक आत्मामें स्थित रहकर तथा आत्माका अवलंबन लेकर, संसृतिरूपी स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न सुखदुःखादि अनेक विभावरूप परिणतिको मैं परिहरता हूँ। इसप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामकी टीकामें १०४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :--- १। कांचन = सुवर्ण; धन। २। निर्ममकारात्मक = निर्ममत्वमय; निर्ममत्वस्वरूप। (निर्ममत्वका लक्षण परम उपेक्षा है।) ३। संसृति = संसार मैं त्याग ममता, निर्ममत्व स्वरूपमें स्थिति कर रहा । अवलंब मेरा आतमा, अवशेष वारण कर रहा ।। ९९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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