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नियमसार
१८७
(शिखरिणी) "निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नैष्कर्म्य न खलु मुनयः संत्यशरणाः। तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वयं विंदंत्येते परमममृतं तत्र निरताः।।"
तथा हि
( मालिनी) अथ नियतमनोवाक्कायकृत्स्नेन्द्रियेच्छो भववनधिसमुत्थं मोहयादःसमूहम्। कनकयुवतिवांच्छामप्यहं सर्वशक्त्या प्रबलतरविशुद्धध्यानमय्या त्यजामि।। १३४ ।।
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।। १०० ।।
“[ श्लोकार्थ:-] शुभ आचरणरूप कर्म और अशुभ आचरणरूप कर्म-ऐसे समस्त कर्मोंका निषेध किया जाने पर और इसप्रकार निष्कर्म अवस्था वर्तने पर, मुनि कहीं अशरण नहीं हैं; ( कारण कि) जब निष्कर्म अवस्था (निवृत्ति-अवस्था) वर्तती है तब ज्ञानमें आचरण करता हुआ-रमण करता हुआ-परिणमन करता हुआ ज्ञान ही उन मुनिओंको शरण है; वे उस ज्ञानमें लीन होते हुए परम अमृतका स्वयं अनुभवन करते हैं-आस्वादन करते हैं।"
और (इस ९९ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) :
[ श्लोकार्थ:-] मन-वचन-काया संबंधी और समस्त इंद्रियों संबंधी इच्छा का जिसने नियंत्रण किया है ऐसा मैं अब भवसागरमें उत्पन्न होनेवाले मोहरूपी जलचर प्राणियोंके समूहको तथा कनक और युवतीकी वांछाको अतिप्रबल-विशुद्धध्यानमयी सर्व शक्तिसे छोड़ता हूँ। १३४।।
* नियंत्रण करना = संयमन करना; अधिकार में लेना।
मम ज्ञानमें है आत्मा, दर्शन-चरितमें आतमा । है और प्रत्याख्यान, संवर,योगमें भी आतमा ।। १००।।
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