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है।
नियमसार
अत्र बन्धनिर्मुक्तमात्मानं भावयेदिति भव्यस्य शिक्षणमुक्तम् ।
स्याताम्;
शुभाशुभमनोवाक्काकर्मभिः प्रकृतिप्रदेशबंधौ चतुर्भिः कषायैः स्थित्यनुभागबन्धौ स्तः; एभिश्चतुर्भिर्बन्धैर्निर्मुक्तः सदानिरुपाधिस्वरूपो ह्यात्मा सोहमिति सम्यग्ज्ञानिना निरन्तरं भावना कर्तव्येति ।
प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैर्विवर्जित आत्मा। सोहमिति चिंतयन् तत्रैव च करोति स्थिरभावम् ।। ९८ ।।
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( मंदाक्रांता ) प्रेक्षावद्भिः सहजपरमानंदचिद्रूपमेकं संग्राह्यं तैर्निरुपममिदं मुक्तिसाम्राज्यमूलम्। तस्मादुच्चैस्त्वमपि च सखे मद्वचःसारमस्मिन् श्रुत्वा शीघ्रं कुरु तव मतिं चिचमत्कारमात्रे ।। १३३ ।।
प्रकृतिबंध,
स्थितिबंध,
अन्वयार्थ:-[ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधैः विवर्जितः ] अनुभागबंध और प्रदेशबंध रहित [ आत्मा ] जो आत्मा [ सः अहम् ] सो मैं हूँ - [ इति ] ऐसा [चिंतयन्] चिंतवन करता हुआ, ( ज्ञानी ) [ तत्र एव ] उसीमें [ स्थिरभावं करोति ] स्थिरभाव करता है ।
टीका:-यहाँ (–इस गाथामें ), बंधरहित आत्मा भाना चाहिये-ऐसे भव्यको शिक्षा दी
गाथा ९८
शुभाशुभ मनवचनकायसंबंधी कर्मोंसे प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध होता है; चार कषायों से स्थितिबंध और अनुभागबंध होता है; इन चार बंधों रहित सदा निरुपाधिस्वरूप जो आत्मा मैं हूँ- ऐसी सम्यग्ज्ञानीको निरंतर भावना करनी चाहिये ।
[ अब इस ९८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
[ श्लोकार्थ :- ] जो मुक्तिसाम्राज्यका मूल है ऐसे इस निरुपम, सहजपरमानंदवाले चिद्रूपको (– चैतन्यके स्वरूपको ) एकको बुद्धिमान पुरुषोंको सम्यक् प्रकारसे ग्रहण करना योग्य है; इसलिये, मित्र ! तू भी मेरे उपदेशके सारको सुनकर, तुरन्त ही उग्ररूपसे इस चैतन्यचमत्कारमात्रके प्रति अपनी वृत्ति कर । १३३ ।
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