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निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार
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(शार्दूलविक्रीडित) निर्द्वन्द्वं निरुपद्रवं निरुपमं नित्यं निजात्मोद्भवं नान्यद्रव्यविभावनोद्भवमिदं शर्मामृतं निर्मलम्। पीत्वा यः सुकृतात्मकः सुकृतमप्येतद्विहायाधुना प्राप्नोति स्फुटमद्वितीयमतुलं चिन्मात्रचिंतामणिम्।। १३१ ।।
(आर्या) को नाम वक्ति विद्वान् मम च परद्रव्यमेतदेव स्यात्। निजमहिमानं जानन् गुरुचरणसमर्चनासमुद्भूतम्।। १३२ ।। पयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं वज्जिदो अप्पा। सो हं इदि चिंतिज्जो तत्थेव य कुणदि थिरभावं ।। ९८ ।।
मुझमें-चैतन्यमात्र-चिंतामणिमें निरंतर लगा है-उसमें आश्चर्य नहीं है, कारण कि अमृतभोजनजनित स्वादको जानकर देवोंको अन्य भोजनसे क्या प्रयोजन है ? (जिस प्रकार अमृतभोजनके स्वादको जानकर देवोंका मन अन्य भोजनमें नहीं लगता, उसीप्रकार ज्ञानात्मक सौख्यको जानकर हमारा मन उस सौख्यके निधान चैतन्यमात्र-चिंतामणिके अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं लगता।) १३० ।
[श्लोकार्थ:-] द्वंद्व रहित, उपद्रव रहित, उपमा रहित, नित्य, निज आत्मासे उत्पन्न होनेवाले, अन्य द्रव्यकी विभावनासे ( -अन्य द्रव्यों संबंधी विकल्प करनेसे ) उत्पन्न न होनेवाले-ऐसे इस निर्मल सुखामृतको पीकर (-उस सुखामृतके स्वादके निकट सुकृत भी दुःखरूप लगनेसे), जो जीव सुकृतात्मक है वह अब इस सुकृतको भी छोड़कर अद्वितीय अतुल चैतन्यमात्र-चिंतामणिको स्फुटरूपसे (-प्रगटरूपसे) प्राप्त करता है। १३१ ।
[ श्लोकार्थ:-] गुरुचरणोंके समर्चनसे उत्पन्न हुई निज महिमाको जाननेवाला कौन विद्वान “यह परद्रव्य मेरा है" ऐसा कहेगा? । १३२।
१ सुकृतात्मक = सुकृतवाला; शुभकृत्यवाला; पुण्यकर्मवाला; शुभ भाववाला। ३ समर्चन = सम्यक् अर्चन, सम्यक् पूजन; सम्यक् भक्ति।
जो प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेशबँध विन आत्मा । मैं हूँ वही , यों भावता ज्ञानी करे स्थिरता वहाँ ।। ९८ ।।
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