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नियमसार
१८३
(अनुष्टुभ् ) "यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुंचति।
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम्।।''
तथा हि
(वसंततिलका) आत्मानमात्मनि निजात्मगुणाढयमात्मा जानाति पश्यति च पंचमभावमेकम्। तत्याज नैव सहजं परभावमन्यं गृह्णाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम्।। १२९ ।।
(शार्दूलविक्रीडित) मत्स्वान्तं मयि लग्नमेतदनिशं चिन्मात्रचिंतामणावन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुक्त्वाधुना विग्रहम्। तचित्रं न विशुद्धपूर्णसहजज्ञानात्मने शर्मणे । देवानाममृताशनोद्भवरुचिं ज्ञात्वा किमन्याशने।। १३० ।।
" [ श्लोकार्थ:-] जो अग्राह्यको ( -ग्रहण न करने योग्यको) ग्रहण नहीं करता, तथा ग्रहीत को ( -ग्राह्यको, शाश्वत स्वभावको) छोड़ता नहीं है, सर्वको सर्व प्रकारसे जानता है, वह स्वसंवेद्य ( तत्त्व ) मैं हूँ।'
और ( इस ९७ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं) :
[ श्लोकार्थ:-] आत्मा आत्मामें निज आत्मिक गुणोंसे समृद्ध आत्माको-एक पंचमभावको-जानता है और देखता है; उस सहज एक पंचमभावको उसने छोड़ा नहीं है तथा अन्य ऐसे परभावको-कि जो वास्तवमें पौद्गलिक विकार है उसे-वह ग्रहण नहीं ही करता। १२९।
[श्लोकार्थ:- ] अन्य द्रव्यका आग्रह करनेसे उत्पन्न होनेवाले इस *विग्रहको अब छोड़कर , विशुद्ध-पूर्ण-सहजज्ञानात्मक सौख्यकी प्राप्तिके हेतु, मेरा यह निज अंतर
* आग्रह = पकड़; ग्रहण; लगे रहना वह। * विग्रह = (१) रागद्वेषादि कलह; (२) शरीर।
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