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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार १७२ तथा चोक्तं समयसारे 'पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य। जिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होइ विसकुंभो।।' तथा चोक्तं समयसारव्याख्यायाम् (वसंततिलका) “यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात्। तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽध: किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः।।'' इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३०६ वी गाथा द्वारा) कहा है कि: “[ गाथार्थ:-] प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, 'निंदा, गर्दा और “शुद्धि-इन आठ प्रकारका विषकुंभ है।" और इसीप्रकार श्री समयसारकी ( अमृतचंद्राचार्यदेवकृत आत्मख्याति नामकी) टीकामें ( १८९ वीं श्लोक द्वारा) कहा है कि : “[ श्लोकार्थ:-] (अरे! भाई,) जहाँ प्रतिक्रमणको ही विष कहा है, वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँ से होगा ? ( अर्थात् नहीं हो सकता।) तो फिर मनुष्य नीचे नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? अप्रमादी होते हुए ऊँचे ऊँचे क्यों नहीं चढ़ते ?” १। प्रतिक्रमण = किये हये दोषोंका निराकरण करना। २। प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोंमें प्रेरणा ३। परिहार = मिथ्यात्वरागादि दोषोंका निवारण ४। धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्योंके आलंबन द्वारा चित्तको स्थिर करना। ५। निवृत्ति = बाह्य विषयकषायादि इच्छामें वर्तते हुए चित्तको मोड़ना। ६। निंदा = आत्मसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना। ७। गर्दा = गुरुसाक्षीसे दोषों का प्रगट करना। ८। शुद्धि = दोष हो जानेपर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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