________________
१७१
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
उत्तमार्थ आत्मा तस्मिन् स्थिता घ्नन्ति मुनिवरा: कर्म । तस्मात्तु ध्यानमेव हि उत्तमार्थस्य प्रतिक्रमणम् ।। ९२ ।।
अत्र निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम्।
इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीनां सल्लेखनासमये हि द्विचत्वारिंशद्भिराचार्यैर्दत्तोत्तमार्थप्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मो व्यवहारेण । निश्चयेन नवार्थेषूत्तमार्थो ह्यात्मा तस्मिन् सच्चिदानंदमयकारणसमयसारस्वरूपे तिष्ठन्ति ये तपोधनास्ते नित्यमरणभीरवः, अत एव कर्मविनाशं कुर्वन्ति। तस्मादध्यात्मभाषयोक्तभेदकरणध्यानध्येयविकल्पविरहितनिरवशेषे
णान्तर्मुखाकारसकलेन्द्रियागोचरनिश्चयपरमशुक्लध्यानमेवनिश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणमित्यवबोद्ध
व्यम्। किं च, निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानमयत्वादमृतकुंभस्वरूपं भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुंभस्वरूपं भवति।
गाथा ९२
अन्वयार्थः-[ उत्तमार्थः ] उत्तमार्थ ( - उत्तम पदार्थ ) [ आत्मा ] आत्मा है । [तस्मिन् स्थिता ] उसमें स्थित [ मुनिवरा: ] मुनिवर [ कर्म ध्नन्ति ] कर्मका घात करते है । [ तस्मात् तु] इसलिये [ ध्यानम् एव ] ध्यान ही [हि] वास्तवमें [ उत्तमार्थस्य ] उत्तमार्थका [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है।
टीका:- यहाँ (इस गाथामें ), निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमणका स्वरूप कहा है।
जिनेश्वरके मार्गमें मुनियोंकी सल्लेखनाके समये, ब्यालीस आचार्यों द्वारा, जिसका नाम उत्तमार्थप्रतिक्रमण है वह दिया जानेके कारण, देहत्याग व्यवहारसे धर्म है। निश्चयसेनव अर्थोमें उत्तम अर्थ आत्मा है; सच्चिदानंदमय कारणसमयसारस्वरूप ऐसे उस आत्मामें जो तपोधन स्थित रहते हैं, वे तपोधन नित्य मरणभीरु हैं; इसीलिये वे कर्मका विनाश करते हैं। इसलिये अध्यात्मभाषामें, पूर्वोक्त *भेदकरण रहित, ध्यान और ध्येयके विकल्प रहित, निरवशेषरूपसे अंतर्मुख जिसका आकार है ऐसा और सकल इंद्रियोंसे अगोचर निश्चयपरमशुक्लध्यान ही निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमण है ऐसा जानना ।
ऐसे व्यवहार-उत्तमार्थ
=
और, निश्चयशुकलध्यानमय व्यवहारधर्मध्यानमय होनेसे विषकुंभस्वरूप है।
* भेदकरण
निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमण
स्वात्माश्रित है;
होनेसे अमृतकुंभस्वरूप
भेद करना वह; भेद डालना वह ।
निश्चयधर्मध्यान तथा प्रतिक्रमण
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com