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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
त्यक्त्वा। त्रिकालनिरावरणनित्यानंदैकलक्षणनिरंजननिजपरमपारिणामिकभावात्मककारणपरमात्मा
ह्यात्मा, तत्स्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं हि निश्चयरत्नत्रयम्; एवं भगवत्परमात्मसुखाभिलाषी य: परमपुरुषार्थपरायणः शुद्धरत्नत्रयात्मकम् आत्मानं भावयति स परमतपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्तः ।
(वसंततिलका)
त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्गरत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदी । शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे ।। १२२ ।।
उत्तमअट्ठे आदा तम्हि ठिदा हणदि मुणिवरा कम्मं । तम्हा दु झाणमेव हि उत्तमअट्ठस्स पडिकमणं ।। ९२ ।।
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श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठानके रूपसे विमुखता वही मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्रात्मक ( मिथ्या ) रत्नत्रय है;–इसे भी ( निरवशेषरूपसे ) छोड़कर, त्रिकाल - निरावरण, नित्य आनंद जिसका एक लक्षण है ऐसा, निरंजन निज परमपारिणामिकभावस्वरूप कारणपरमात्मा वह आत्मा है; उसके स्वरूपके श्रद्धान - ज्ञान - आचरणका रूप वह वास्तवमें निश्चयरत्नत्रय है; - इसप्रकार भगवान परमात्माके सुखका अभिलाषी ऐसा जो परमपुरुषार्थपरायण ( परम तपोधन) शुद्धरत्नत्रयात्मक आत्माको भाता है, उस परम तपोधनको ही ( शास्त्रमें ) निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा है।
[अब इस ९१ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं:]
[ श्लोकार्थ :- ] समस्त विभावको तथा व्यवहार मार्गके रत्नत्रयको छोड़कर निजतत्त्ववेदी (निज आत्मतत्त्वको जाननेवाला - अनुभव करने वाला) मतिमान पुरुष शुद्ध आत्मतत्त्वमें नियत (– शुद्धात्मतत्त्वपरायण ) ऐसा जो एक निजज्ञान, दूसरा श्रद्धान और फिर दूसरा चारित्र उसका आश्रय करता है । १२२ ।
है जीव उत्तम अर्थ, मुनि तत्रस्थ हन्ता कर्म का । अतएव है बस ध्यान ही प्रतिक्रमण उत्तम अर्थका ।। ९२ ।।
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