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नियमसार
मिच्छादसणणाणचरित्तं चइऊण णिरवसेसेण। सम्मत्तणाणचरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं ।। ९१ ।।
मिथ्यादर्शनज्ञानचरित्रं त्यक्त्वा निरवशेषेण। सम्यक्त्वज्ञानचरणं यो भावयति स प्रतिक्रमणम्।।९१ ।।
अत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां निरवशेषस्वीकारेण मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणां निरवशेषत्यागेन च परममुमुक्षोनिश्चयप्रतिक्रमणं च भवति इत्युक्तम्।
भगवदर्हत्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं, तत्रैवावस्तुनि वस्तुबुद्धिर्मिथ्याज्ञानं, तन्मार्गाचरणं मिथ्याचारित्रं च, एतत्रितयमपि निरवशेषं त्यक्त्वा, अथवा स्वात्मश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपविमुखत्वमेव मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मकरत्नत्रयम्, एतदपि
भवोंमें) सुना है और आचरा ( -आचरणमें लिया) है; परंतु अरेरे! खेद है कि जो सर्वदा एक ज्ञान है उसे (अर्थात् जो सदा एक ज्ञानस्वरूप ही है ऐसे परमात्मतत्त्वको) जीवने सुना-आचरा नहीं है, नहीं है। १२१ ।
गाथा ९१ अन्वयार्थ:-[ मिथ्यादर्शनज्ञानचरित्रं] मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको [ निरवशेषेण] निरवशेषरूपसे [ त्यक्त्वा] छोड़कर [ सम्यक्त्वज्ञानचरणं] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका [यः] जो (जीव) [ भावयति] भाता है, [ सः] वह (जीव) [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है।
टीका:-यहाँ (इस गाथामें), सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रका निरवशेष (-संपूर्ण ) स्वीकार करनेसे और मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रका निरवशेष त्याग करनेसे परम मुमुक्षुको निश्चयप्रतिक्रमण होता है ऐसा कहा हैं।
__ भगवान अर्हत् परमेश्वरके मार्गसे प्रतिकूल मार्गाभासमें मार्गका श्रद्धान वह मिथ्यादर्शन है, उसीमें ही कही हुई अवस्तुमें वस्तुबुद्धि वह मिथ्याज्ञान है और उस मार्गका आचरण वह मिथ्याचारित्र है;--इन तीनोंको निरवशेषरूपसे छोड़कर। अथवा, निज आत्माके
जो जीव त्यागे सर्व मिथ्यादर्श-ज्ञान-चरित्र रे । सम्यक्त्व-ज्ञान-चरित्र भावे प्रतिक्रमण कहते उसे।।९१।।
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