________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
१६८
सामान्यप्रत्ययाः, तेन स्वरूपविकलेन बहिरात्मजीवेनानासादितपरमनैष्कर्म्यचरित्रेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न भावितानि भवन्तीति। अस्य मिथ्यादृष्टेर्विपरीतगुणनिचयसंपन्नोऽत्यासन्नभव्यजीवः । अस्य सम्यग्ज्ञानभावना कथमिति चेत्तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभि:
( अनुष्टुभ् ) "भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः।
भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः।।'' तथा हि
(मालिनी) अथ भवजलराशौ मग्नजीवेन पूर्व किमपि वचनमात्रं निर्वृतेः कारणं यत्। तदपि भवभवेषु श्रूयते वाह्यते वा
ष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम्।। १२१ ।।
न च न च बत क
प्रत्ययोंको पहले सुचिर काल भाया है; जिसने परम नैष्कर्म्यरूप चारित्र प्राप्त नहीं किया है ऐसे उस स्वरूपशून्य बहिरात्म-जीवने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र नहीं भाया है। इस मिथ्यादृष्टि जीवसे विपरीत गुणसमुदायवाला अति-आसन्नभव्य जीव होता है।
इस (अतिनिकटभव्य) जीवको सम्यग्ज्ञानकी भावना किसप्रकारसे होती है ऐसा प्रश्न किया जाये तो (आचार्यवर ) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २३८ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि:
__“[श्लोकार्थ:-] *भवावर्तमें पहले न भायी हुई भावनाएँ ( अब ) मैं भाता हूँ। वे भावनाएँ (पहले ) न भायी होनेसे मैं भवके अभावके लिये उन्हें भाता हूं ( कारण कि भवका अभाव तो भवभ्रमणके कारणभूत भावनाओंसे विरुद्ध प्रकारकी, पहले न भायी हुई ऐसी अपूर्व भावनाओंसे ही होता है)।"
और ( इस ९० वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
[ श्लोकार्थ:-] जो मोक्षका कुछ कथनमात्र (-कहनेमात्र) कारण है उसे भी( अर्थात् व्यवहार-रत्नत्रयको भी ) भवसागरमें डूबे हुए जीवने पहले भवभवमें (-अनेक
* भवावर्त = भव-आवर्त; भवका चक्र; भवका भँवरजाल; भव-परावर्त।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com