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नियमसार
१६७
मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं। सम्मत्तपहुदिभावा अभाविया होंति जीवेण।। ९० ।। मिथ्यात्वप्रभृतिभावाः पूर्वं जीवेन भाविता: सुचिरम्।
सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः अभाविता भवन्ति जीवेन्।। ९० ।। आसन्नानासन्नभव्यजीवपूर्वापरपरिणामस्वरूपोपन्यासोऽयम्।
मिथ्यात्वाव्रतकषाययोगपरिणामास्सामान्यप्रत्ययाः, तेषां विकल्पास्त्रयोदश भवन्ति 'मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं' इति वचनात्, मिथ्यादृष्टिगुणस्थानादिसयोगिगुणस्थानचरमसमयपर्यंतस्थिता इत्यर्थः।
अनासन्नभव्यजीवेन निरंजननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानविकलेन पूर्वं सुचिरं भाविताः खलु
( अर्थात् ध्यानावली इस परमात्मतत्त्वमें कैसे हो सकती है) सो कहो। १२० ।
गाथा ९० अन्वयार्थ:-[ मिथ्यात्वप्रभृतिभावाः ] मिथ्यात्वादि भाव [जीवेन] जीनवे [ पूर्वं ] पूर्वमें [ सुचिरम् ] सुचिर काल (अति दीर्घ काल) [ भाविताः] भाये हैं; [ सम्यक्त्वप्रमृतिभावाः ] सम्यक्त्वादि भाव [ जीवेन ] जीवने [ अभाविताः भवन्ति ] नहीं भाये हैं।
टीका:-यह, आसन्नभव्य और अनासन्नभव्य जीवके पूर्वापर (-पहलेके और बादके) परिणामोंके स्वरूपका कथन है।
मिथ्यात्व , अव्रत, कषाय और योगरूप परिणाम सामान्य प्रत्यय (आस्रव) है; उनके तेरह भेद हैं, कारण कि " मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं" ऐसा (शास्त्रका) वचन है; मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर सयोगीगुणस्थानके अन्तिम समय तक प्रत्यय होते हैंऐसा अर्थ है।
निरंजन निज परमात्मतत्त्वके श्रद्धान रहित अनासन्नभव्य जीवने वास्तवमें सामान्य
* अर्थ:-(प्रत्ययोंके, तेरह प्रकारके भेद कहे गये हैं-) मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर सयोगकेवलीगुणस्थानके चरम समय तकके।
मिथ्यात्व-आदिक भावकी की जीवने चिर भावना। सम्यक्त्व-आदिक भावकी पर की कभी न प्रभावना ।।९० ।।
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