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परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
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तथा चोक्तम्
( अनुष्टुभ् ) “निष्क्रिय करणातीतं ध्यानध्येयविवर्जितम। अन्तर्मुखं तु यद्धयानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः।।''
(वसंततिलका) ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे। सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्गस्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम्।। ११९ ।।
(वसंततिलका) सद्बोधमंडनमिदं परमात्मतत्त्वं मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात्। नास्त्येष सर्वनयजातगतप्रपंचो ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता।। १२० ।।
इसीप्रकार ( अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि:
“[ श्लोकार्थ:-] जो ध्यान निष्क्रिय है, इंद्रियातीत है, ध्यानध्येयविवर्जित ( अर्थात् ध्यान और ध्येयके विकल्पों रहित) है और अंतर्मुख है, उस ध्यानको योगी शुक्लध्यान कहते
[अब इस ८९ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते
[ श्लोकार्थ:-] प्रगटरूपसे सदाशिवमय (-निरंतर कल्याणमय) ऐसे परमात्मतत्त्वमें ध्यानावली होना भी शुद्धनय नहीं कहता। “वह है (अर्थात् ध्यानावली आत्मामें है)" ऐसा ( मात्र) व्यवहारमार्गमें सतत कहा है। हे जिनेंद्र ! ऐसा वह तत्त्व ( - तूने नय द्वारा कहा वस्तुस्वरूप), अहो! महा इंद्रजाल है। ११९ ।
[श्लोकार्थ:-] सम्यग्ज्ञानका आभूषण ऐसा यह परमात्मतत्त्व समस्त विकल्पसमूहोंसे सर्वतः मुक्त ( –सर्व ओरसे रहित) है। (इसप्रकार) सर्वनयसमूह संबंधी यह प्रपंच परमात्मतत्त्वमें नहीं तो फिर वह ध्यानावली इसमें किसप्रकार उत्पन्न हुई
* ध्यानावली = ध्यानपंक्ति; ध्यान परंपरा।
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