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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नियमसार ध्यानविकल्पस्वरूपाख्यानमेतत्। स्वदेशत्यागात् द्रव्यनाशात् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात् अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्यानम्, चौरजारशात्रवजनवधबंधननिबद्धमहद्वेषजनितरौद्रध्यानं च, एतद्वितयम् अपरिमितस्वर्गापवर्गसुखप्रतिपक्षं संसारदुःखमूलत्वान्निरवशेषेण त्यक्त्वा, स्वर्गापवर्गनिःसीमसुखमूलस्वात्माश्रितनिश्चयपरमधर्मध्यानम्, ध्यानध्येयविविधविकल्पविरहितान्तर्मुखाकारसकलकरणग्रामातीतनिर्भेदपरमकलासनाथनिश्चयशुक्लध्यानं च ध्यात्वा यः परमभावभावनापरिणतः भव्यवरपुंडरीक: निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति, परमजिनेन्द्रवदनारविन्दविनिर्गतद्रव्यश्रुतेषु विदितमिति। ध्यानेषु च चतुर्पु हेयमाद्यं ध्यानद्वितयं, त्रितयं तावदुपादेयं, सर्वदोपादेयं च चतुर्थमिति।। गाथा ८९ अन्वयार्थ:-[ यः] जो (जीव) [ आर्तरौद्रं ध्यानं ] आर्त और रौद्र ध्यान [ मुक्त्वा ] छोड़कर [धर्मशुक्लं वा] धर्म अथवा शुक्ल ध्यानको [ध्यायति] ध्याता है, [ सः] वह (जीव) [ जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु] जिनवरकथित सूत्रोंमें [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [ उच्यते] कहलाता है। टीका:-यह, ध्यानके भेदोंके स्वरूपका कथन है। (१) स्वदेशके त्यागसे, द्रव्यके नाशसे , मित्रजनके विदेशगमनसे, कमनीय (इष्ट, सुंदर) कामिनीके वियोगसे अथवा अनिष्टके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले जो आर्तध्यान, तथा (२) चोर-जार-शत्रुजनोंकें वध-बंधन संबंधी महा द्वेषसे उत्पन्न होनेवाला जो रौद्रध्यान, वे दोनों ध्यान स्वर्ग और मोक्षके अपरिमित सुखसे प्रतिपक्ष संसारदुःखके मूल होनेके कारण उन दोनोंको निरवशेषरूप ( सर्वथा) छोड़कर, (३) स्वर्ग और मोक्षके निःसीम (-अपार) सुखका मूल ऐसा जो स्वात्माश्रित निश्चय-परम-धर्मध्यान, तथा (४) ध्यान और ध्येयके विविध विकल्प रहित, अंतर्मुखाकार, सकल इंद्रियोंके समूहसे अतीत (-समस्त इन्द्रियातीत) और निर्भेद परम कला सहित ऐसा जो निश्चय-शुक्लध्यान, उन्हें ध्याकर, जो भव्यवरपुंडरीक ( –भव्योत्तम) परमभावकी (पारिणामिक भावकी) भावनारूपसे परिणमित है, वह निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप है-ऐसा परम जिनेंद्रके मुखारविंदसे निकले हुए द्रव्यश्रुतमें कहा ____ चार ध्यानोंमें प्रथम दो ध्यान हेय है, तीसरा प्रथम तो उपादेय है और चौथा सर्वदा उपादेय है। * अंतर्मुखाकार = अंतर्मुख जिसका आकार अर्थात् स्वरूप है ऐसा। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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