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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार
त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणपरमतपोधनस्य निश्चयचारित्राख्यानमेतत्।
यः परमतपश्चरणसरःसरसिरुहाकरचंडचंडरश्मिरत्यासन्नभव्यो मुनीश्वर: बाह्यप्रपंचरूपम्
अगुप्तिभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिगुप्तनिर्विकल्पपरमसमाधिलक्षणलक्षितम् अत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति, यस्मात् प्रतिक्रमणमयः परमसंयमी अत एव स च निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवतीति ।
( हरिणी )
अथ तनुमनोवाचां त्यक्त्वा सदा विकृतिं मुनिः सहजपरमां गुप्तिं संज्ञानपुंजमयीमिमाम्। भजतु परमां भव्य: शुद्धात्मभावनया समं भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत् ।। ११८ ।।
मोत्तूण अट्टरुद्द झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा । सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिद्दिद्वसुत्तेसु ।। ८९ ।।
मुक्त्वार्तरौद्रं ध्यानं यो ध्यायति धर्मशुक्लं वा। स प्रतिक्रमणमुच्यते जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु ।। ८९ ।।
टीका:- त्रिगुप्तिगुप्तपना ( - तीन गुप्ति द्वारा गुप्तपना ) जिसका लक्षण है ऐसे परम तपोधनको निश्चयचारित्र होनेका यह कथन है।
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परम तपश्चरणरूपी सरोवरके कमलसमूह के लिये प्रचंड सूर्य समान ऐसे जो अतिआसन्नभव्य मुनीश्वर बाह्य प्रपंचरूप अगुप्तिभाव छोड़कर, त्रिगुप्तिगुप्त-निर्विकल्प– परमसमाधिलक्षणसे लक्षित अति-अपूर्व आत्मको ध्याते हैं, वे मुनीश्वर प्रतिक्रमणमय परमसंयमी होनेसे ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप हैं।
[अब इस ८८ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं:]
[ श्लोकार्थ :- ] मन-वचन-कायकी विकृतिको सदा छोड़कर, भव्य मुनि सम्यग्ज्ञानके पुंजमयी इस सहज परम गुप्तिको शुद्धात्माकी भावना सहित उत्कृष्टरूपसे भजो । त्रिगुप्तिमय ऐसे उन मुनिका वह चारित्र निर्मल है । ९९८ ।
जो आर्त रौद्र विहाय वर्ते धर्म शुक्ल सुध्यानमें । प्रतिक्रमण कहते हैं उसे जिनदेवके आख्यानमें ।। ८९ ।।
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