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तथा हि
नियमसार
( मन्दाक्रांता ) आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं ध्यानध्येयप्रमुखसुतपःकल्पनामात्ररम्यम्। बुद्ध्वा धीमान् सहजपरमानन्दपीयूषपूरे निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे ।। १२३ ।।
झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं । तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ।। ९३ ।।
ध्याननिलीनः साधुः परित्यागं करोति सर्वदोषाणाम् ।
तस्मात्तु ध्यानमेव हि सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणम् ।। ९३ ।।
अत्र ध्यानमेकमुपादेयमित्युक्तम् ।
और (इसीप्रकार ९२ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ):
[ श्लोकार्थ :- ] आत्मध्यानके अतिरिक्त अन्य सब घोर संसारका मूल है, (और) ध्यान-ध्येयादिक सुतप ( अर्थात् ध्यान, ध्येय आदिके विकल्पवाला शुभ तप भी ) कल्पनामात्र रम्य है;–ऐसा जानकर धीमान ( - बुद्धिमान पुरुष ) सहज परमानंदरूपी पीयूषके पूरमें डूबते हुए (-निमग्न होते हुए) ऐसे एक सहज परमात्माका आश्रय करते हैं । १२३ ।
गाथा ९३
अन्वयार्थः-[ ध्याननिलीनः ] ध्यानमें लीन [ साधुः ] साधु [ सर्वदोषाणाम्] सर्व दोषोंका [ परित्यागं ] परित्याग [ करोति ] करते हैं; [ तस्मात् तु ] इसलिये [ ध्यानम् एव ] ध्यान ही [हि ] वास्तवमें [ सर्वातिचारस्य ] सर्व अतिचारका [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है ।
टीका:- यहाँ ( इस गाथामें ), ध्यान एक उपादेय है ऐसा कहा है।
मेरे साधु करता ध्यानमें सब दोष का परिहार है । अतएव ही सर्वातिचार प्रतिक्रमण यह ध्यान है ।। ९३ ।।
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