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नियमसार
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(आर्या) शीलमपवर्गयोषिदनंगसुखस्यापि मूलमाचार्याः। प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परंपरा हेतुः ।। १०७ ।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृतौ व्यवहारचारित्राधिकारः चतुर्थः श्रुतस्कन्धः।।
[श्लोकार्थ:-] आचार्योंने शीलको (-निश्चयचारित्रको ) मुक्तिसुंदरीके अनंग (अशरीरी) सुखका मूल कहा है; व्यवहारात्मक चारित्र भी उसका परंपरा कारण है। १०७ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें ( अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागमकी निग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें) व्यवहारचारित्र अधिकार नामका चौथा श्रुतस्कंध समाप्त हुआ।
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