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व्यवहारचारित्र अधिकार
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व्यवहारचारित्राधिकारव्याख्यानोपसंहारनिश्चयचारित्रसूचनोपन्यासोऽयम्।
इत्थंभूतायां प्रागुक्तपंचमहाव्रतपंचसमितिनिश्चयव्यवहारत्रिगुप्तिपंचपरमेष्ठिध्यानसंयुक्तायाम् अतिप्रशस्तशुभभावनायां व्यवहारनयाभिप्रायेण परमचारित्रं भवति, वक्ष्यमाणपंचमाधिकारे परमपंचमभावनिरतपंचमगतिहेतुभूतशुद्धनिश्चयनयात्मपरमचारित्रं द्रष्टव्यं भवतीति।
तथा चोक्तं मार्गप्रकाशे
(वंशस्थ) "कुसूलगर्भस्थितबीजसोदरं भवेद्विना येन सुदृष्टिबोधनम्। तदेव देवासुरमानवस्तुतं नमामि जैनं चरणं पुनः पुनः।।"
तथा हि
टीका:-यह, व्यवहारचारित्र-अधिकारका जो व्याख्यान उसके उपसंहारका और निश्चयचारित्रकी सूचनाका कथन है।
ऐसी जो पूर्वोक्त पंचमहाव्रत, पंचसमिति, निश्चय-व्यवहार त्रिगुप्ति तथा पंचपरमेष्ठीके ध्यानसे संयुक्त , अतिप्रशस्त शुभ भावना उसमें व्यवहारनयके अभिप्रायसे परम चारित्र है; अब कहे जानेवाले पाँचवें अधिकारमें, परम पंचमभावमें लीन, पंचमगतिके हेतुभूत , शुद्धनिश्चयनयात्मक परम चारित्र द्रष्टव्य (-देखनेयोग्य) है।
इसीप्रकार मार्गप्रकाशमें (श्लोक द्वारा ) कहा है कि:
" [ श्लोकार्थ:-] जिनके बिना (-जो चारित्र बिना) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कोठारके भीतर पड़े हुए बीज (-अनाज) समान है, उसी देव-असुर-मानवसे स्तवन किया गया जैन चरणको (-ऐसा जो सुर-असुर-मनुष्योंसे स्तवन किया गया जिनोक्त चारित्र उसे ) मैं पुनः पुनः नमन करता हूँ।”
और (इस व्यवहारचारित्र अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ):
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