________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
नियमसार
१४१
रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा। णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होति।।७४ ।।
रत्नत्रयसंयुक्ताः जिनकथितपदार्थदेशकाः शूराः।
निःकांक्षभावसहिताः उपाध्याया ईदृशा भवन्ति।। ७४ ।। अध्यापकाभिधानपरमगुरुस्वरूपाख्यानमेतद्।
अविचलिताखंडाद्वैतपरमचिद्रूपश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानशुद्धनिश्चयस्वभावरत्नत्रयसंयुक्ताः। जिनेन्द्रवदनारविंदविनिर्गतजीवादिसमस्तपदार्थसार्थोपदेशशूराः। निखिलपरिग्रह-परित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नपरमवीतरागसुखामृतपानोन्मुखास्तत एव निष्काक्षा-भावनासनाथाः। एवभूतलक्षणलक्षितास्ते जैनानामुपाध्याया इति।
शम-दम-यमका निवासस्थान,मैत्री-दया-दमका मंदिर (घर)-ऐसे यह श्री चंद्रकीर्तिमुनिका निरुपम मन ( चैतन्यपरिणमन) वंद्य है। १०४ ।
गाथा ७४ अन्वयार्थ:-[ रत्नत्रयसंयुक्ताः ] रत्नत्रयसे संयुक्त , [ शूराः जिनकथितपदार्थदेशकाः ] जिनकथित पदार्थों के शूरवीर उपदेशक और [ निःकांक्षभावसहिताः] निःकांक्षभाव सहित;[ ईदृशाः ] ऐसे , [ उपाध्यायाः ] उपाध्याय [ भवन्ति ] होते हैं।
टीका:-यह, अध्यापक ( अर्थात् उपाध्याय) नामके परमगुरुके स्वरूपका कथन है।
[ उपाध्याय कैसे होते हैं ? ] (१) अविचलित अखंड अद्वैत परम चिद्रूपके श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानरूप शुद्ध निश्चय-स्वभावरत्नत्रयवाले; (२) जिनेंद्रके मुखारविंदसे निकले हुए जीवादि समस्त पदार्थसमूहका उपदेश देने में शूरवीर; (३) समस्त परिग्रहके परित्यागस्वरूप जो निरंजन निज परमात्मतत्त्व उसकी भावनासे उत्पन्न होनेवाले परम वीतराग सुखामृतके पानमें सन्मुख होनेसे ही निष्कांक्षभावना सहित; -ऐसे लक्षणोंसे लक्षित, वे जैनोंके उपाध्याय होते हैं।
[अब ७४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं: ]
* शम = शांति; उपशम। दम = इन्द्रियादिका दमन; जितेंद्रियता। यम = संयम। * अनुष्ठान = आचरण; चारित्र; विधान; कार्यरूपमें परिणत करना।
जो रत्नत्रयसे युक्त नि:कांक्षित्वसे भरपूर हैं। उवझाय वे जिनवर-कथित तत्वोपदेष्टा शूर हैं ।। ७४ ।।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com