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व्यवहारचारित्र अधिकार
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( अनुष्टुभ् ) रत्नत्रयमयान् शुद्धान् भव्यांभोजदिवाकरान्। उपदेष्ट्रनुपाध्यायान् नित्यं वंदे पुनः पुनः।। १०५ ।।
वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता। णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होति।।७५ ।।
व्यापारविप्रमुक्ताः चतुर्विधाराधनासदारक्ताः। निर्ग्रन्था निर्मोहाः साधवः ईदृशा भवन्ति।।७५ ।।
निरन्तराखंडितपरमतपश्चरणनिरतसर्वसाधुस्वरूपाख्यानमेतत्।
ये महान्तः परमसंयमिन: त्रिकालनिरावरणनिरंजनपरमपंचमभावभावनापरिणताः अत
समस्तबाह्यव्यापारविप्रमुक्ताः। ज्ञानदर्शनचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधाराधना-सदानुरक्ताः। बाह्याभ्यन्तरसमस्तपरिग्रहाग्रहविनिर्मुक्तत्वान्निर्ग्रन्थाः। सदा निरञ्जन
एव
[ श्लोकार्थ:-] रत्नत्रयमय, शुद्ध , भव्यकमलके सूर्य और (जिनकथित पदार्थों के ) उपदेशक-ऐसे उपाध्यायोंको मैं नित्य पुनः पुनः वंदन करता हूँ। १०५ ।
गाथा ७५ अन्वयार्थ:-[ व्यापारविप्रमुक्ताः ] व्यापारसे विमुक्त (-समस्त व्यापार रहित), [ चतुर्विधाराधनासदारक्ताः ] चतुर्विध आराधनामें सदा रक्त, [ निर्ग्रन्थाः] निग्रंथ और [ निर्मोहाः ] निर्मोह;---[ एतादृशाः ] ऐसे , [ साधवः ] साधु [भवन्ति ] होते हैं।
टीका:-यह, निरंतर अखंडित परम तपश्चरणमें निरत (-लीन) ऐसे सर्व साधुओंके स्वरूपका कथन है।
[ साधु कैसे होते हैं ? ] (१) परमसंयमी महापुरुष होनेसे त्रिकाल-निरावरण निरंजन परम पंचमभावकी भावनामें परिणमित होनेके कारण ही समस्त बाह्यव्यापारसे विमुक्त; (२) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तप नामकी चतुर्विध आराधनामें सदा अनुरक्त; (३) बाह्य-अभ्यंतर समस्त परिग्रहके ग्रहण रहित होनेके कारण निर्ग्रथ; तथा (४) सदा निरंजन
निग्रंथ है, निर्मोह है, व्यापारसे प्रविमुक्त है। हैं साधु, चउआराधनामें जो सदा अनुरक्त हैं।। ७५।।
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