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व्यवहारचारित्र अधिकार
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निखिलघोरोपसर्गविजयोपार्जित-धीरगुणगंभीराः। एवंलक्षणलक्षितास्ते भगवन्तो ह्याचार्या इति।
तथा चोक्तं श्रीवादिराजदेवै:
__ ( शार्दूलविक्रीडित) 'पंचाचारपरान्नकिंचनपतीन्नष्टकषायाश्रमान् चंचज्ज्ञानबलप्रपंचितमहापंचास्तिकायस्थितीन्। स्फाराचंचलयोगचंचुरधियः सूरीनुदंचद्गुणान् । अंचामो भवदुःखसंचयभिदे भक्तिक्रियाचंचवः।।''
तथा हि
(हरिणी) सकलकरणग्रामालंबाद्विमुक्तमनाकुलं स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम्। शमदमयमावासं मैत्रीदयादममंदिरं निरुपममिदं वंद्यं श्रीचन्द्रकीर्तिमुनेर्मनः।। १०४ ।।
में निपुण); (३-४) समस्त घोर उपसर्गों पर विजय प्राप्त करते हैं इसलिये धीर और गुणगंभीर;-ऐसे लक्षणोंसे लक्षित, वे भगवंत आचार्य होते हैं।
इसीप्रकार ( आचार्यवर ) श्री वादिराजदेव ने कहा है कि:
" [ श्लोकार्थ:-] जो पंचाचारपरायण हैं, जो अकिंचनताके स्वामी हैं, जिन्होंने कषायस्थानोंको नष्ट किया है, परिणमित ज्ञानके बल द्वारा जो महा पंचास्तिकायकी स्थितिको समझते हैं, विपुल अचंचल योगमें (-विकसित स्थिर समाधिमें) जिनकी बुद्धि निपुण है और जिनको गुण उछलते हैं, उन आचार्योंको भक्तिक्रियामें कुशल ऐसे हम भवदुःखराशिको भेदनेके लिये पूजते हैं।"
और (इस ७३ वी गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं):
[ श्लोकार्थ:- ] सकल इन्द्रियसमूहके आलंबन रहित, अनाकुल, स्वहितमें लीन, शुद्ध , निर्वाणके कारणका कारण ( –मुक्तिका कारणभूत शुक्लध्यानका कारण ),
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